Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 152
________________ तीर्थङ्कर जीवनी १३५ के नीचे लेट गया, नींद आगई। उसने स्वप्न देखा कि वह घर पहुँच गया है। घर पर जितना भी पानी है, पी गया है, तथापि प्यास शान्त नहीं हुई । कुए पर गया और वहाँ का सारा पानी पी गया। पर प्यास नहीं बुझी। नदी, नाले और द्रहों का पानी पीता हुआ समुद्र पर पहुँचा, समुद्र का सारा पानी पी लेने पर भी उसकी प्यास कम नहीं हई । तब वह एक पानी से रहित जीर्ण कूप के पास पहँचा । वहाँ पानी तो नहीं था, किन्तु भीगे हुए तिनकों को देखकर मन ललचाया और उन तिनकों को निचोड़ कर प्यास बुझाने का प्रयास कर रहा था कि नींद खुल गई। रूपक का उपसंहार करते हुए भगवान् ने कहा-क्या पुत्रो ! उन भीगे हुए तिनकों से उस लकड़हारे की प्यास शान्त हो सकती है ? जबकि कुए, नदी, द्रह, तालाब और समुद्र के पानी से नहीं हुई थी ! पुत्रों ने एक स्वर से कहा--नहीं भगवन् ! कदापि नहीं । भगवान् ने उन्हें अपने अभिमत की ओर आकृष्ट करते हुए कहापुत्रो ! राज्यश्री से तृष्णा को शांत करने का प्रयास भी भीगे हुए तिनकों को निचोड़कर पीने से प्यास बुझाने के प्रयास के समान है । दीर्घकालीन अपार स्वर्गीय सुखों से भी जब तृष्णा शान्त नहीं हुई तो इस तुच्छ और अल्पकालीन राज्य से कैसे हो सकती है ? अतः सम्बोधि को प्राप्त करो। वस्तुतः जब तक स्वराज्य नहीं मिलता तब तक परराज्य की कामना रहती है। स्वराज्य मिलने पर परराज्य का मोह नहीं रह जाता। भगवान् ने उस समय अपने पुत्रों को वैराग्यवर्द्धक एवं प्रभावजनक जो उपदेश दिया था, वह सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कंध के द्वितीय 'वैतालीय' नामक अध्ययन में उल्लिखित है । जिनदास महत्तर के उल्लेख से स्पष्ट है कि यह अध्ययन भगवान् के उसी उपदेश के आधार पर प्रवृत्त हुआ है। उस उपदेश में बतलाया गया है कि - 'मानव को शीघ्र-से-शीघ्र प्रतिबोध लाभ करना चाहिए, क्योंकि व्यतीत समय लौटकर नहीं पाता और पूनः मनुष्यभव सुलभ नहीं है। प्राप्त जीवन का भी कोई ठिकाना नहीं । बालक, वृद्ध यहाँ तक कि गर्भस्थ मनुष्य भी मृत्यु के शिकार हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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