Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 172
________________ तीर्थङ्कर जीवन १५५ पारंगत थे। इनका कार्य था शिष्यों को शास्त्राभ्यास कराना । इनकी संख्या सैंतालीस सौ पचास थी।८ छठी श्रेणी के श्रपण वादी थे। ये तर्क और दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा करने में प्रवीण थे। अन्य तीथियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें आर्हत धर्म के अनुकूल बनाना, इनका प्रमुख कार्य था। इनकी संख्या बारह हजार छह सौ पचास थी।३०९ सातवीं श्रेणी में वे सामान्य श्रमण थे जो अध्ययन, तप, ध्यान तथा सेवा-शुश्र षा किया करते थे। इस प्रकार श्री ऋषभदेव की संघ-व्यवस्था सुगठित और वैज्ञानिक थी। धार्मिक राज्य की सूव्यवस्था करने में वे सर्वतंत्र-स्वतंत्र थे। लक्षाधिक व्यक्ति उनके अनुयायी थे और उनका उन पर अखण्ड प्रभुत्व था। ___ भगवान् श्री ऋषभदेव सर्वज्ञ होने के पश्चात् जीवन के सान्ध्य तक आर्यावर्त में पैदल घूम-घूमकर यात्म-विद्या की अखण्ड ज्योति जगाते रहे । देशना रूपी जल से जगत् की दुःखाग्नि को शमन करते रहे ।१० जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग-निष्ठा व संयम-प्रतिष्ठा उत्पन्न करते रहे। निर्वाण तृतीय आरे के तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर भगवान् दस सहस्र श्रमरणों के साथ अष्टापद पर्वत पर आरूढ़ हुए। ३०८. उसभस्स णं० चत्तारि सहस्सा सत्त सया पन्नासा चोद्दस पुवीए अजिणाणं जिणसंकासारणं उक्कोसिया चोद्दसपुव्विसंपया होत्था । -कल्ससूत्र सू० १६७ पृ० ५८ ३०६. उसभस्स णं बारस सहस्सा छच्च सया पन्नासा वाईणं० -कल्पसूत्र १६५,१५६ ३१०. वर्षति सिंचति देशनाजलेन, दुःखाग्निना दग्धं जगदिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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