Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 178
________________ तीर्थङ्कर जीवन १६१ "आत्मा ही परमात्मा है"३२२... यह जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त को ऋग्वेद के शब्दों में भगवान् श्री ऋषभदेव ने इस रूप में प्रतिपादित किया-“मन, वचन, काय तीनों योगों से बद्ध [संयत] वृषभ ने घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मयों में निवास करता है ।"३२२ उन्होंने स्वयं कठोर तपश्चरणरूप साधना कर वह आदर्श जन-नयन के समक्ष प्रस्तुत किया। एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि ने लिखा कि-"ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे जिन्होंने सब से प्रथम मर्त्यदशा में देवत्व की प्राप्ति की थी।"३२४ अथर्ववेद का ऋषि मानवों को ऋषभदेव का आह्वान करने के लिए यह प्रेरणा करता है कि -"पापों से मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्व प्रथम तथा भवसागर के पोत को मैं हृदय से ग्राह्वान करता है । हे सहचर बन्धो ! तुम आत्मीय श्रद्धा द्वारा उसके आत्मबल और तेज को धारण करो ।२५ क्योंकि वे प्रेम के राजा हैं उन्होंने ३२२. जे अप्पा से परमप्पा । (ख) मग्गण-गुणठाणेहि य, ____चउदसहि तह असुद्धणया । विण्गोया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धनया ।। -द्रव्यसंग्रह १११३ (ग) सदामुक्तं .....""कारणपरमात्मानं जानाति । -नियमसार, तात्पर्यवृत्ति गा० ६६ ३२३. त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती। महादेवो मर्त्या आविवेश ॥ --ऋग्वेद ४।५८।३ ३२४. तन्मय॑स्य देवत्वसजातमग्रः । -ऋग्वेद ३१।१७ ३२५. अहो मुचं वृषभं यज्ञियानं विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । अपां न पातमश्चिनां हुवे धिय इन्द्रियेण तमिन्द्रियं दत्तभोजः ।। --अथर्ववेद कारिका १६।४२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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