Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 177
________________ १६० ऋषभदेव : एक परिशीलन जिनमें से कई का उल्लेख वेदादि ग्रन्थों में भी मिलता है । ग्रतः जैन धर्म भगवान् ऋषभदेव के काल से चला आ रहा है | X ऋग्वेद में भगवान् श्री ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाश करने वाला बतलाते हुए कहा है- " जैसे जल से भरा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वी ज्ञान के प्रतिपादक वृषभ [ ऋषभ ] महान् हैं, उनका शासन वर दे । उनके शासन में ऋषि परम्परा से प्राप्त पूर्व का ज्ञान आत्मा के शत्रुत्रों - क्रोधादि का विध्वंसक हो । दोनों [ संसारी और मुक्त] आत्माएँ अपने ही प्रात्मगुणों से चमकती हैं । अतः वे राजा हैं - वे पूर्ण ज्ञान के प्रागार हैं और आत्म-पतन नहीं होने देते । २० वैदिक ऋषि भक्ति भावना से विभोर होकर उस महाप्रभु की स्तुति करता हुआ कहता है- हे प्रात्मद्रष्टा प्रभो ! परम सुख पाने के लिए मैं तेरी शरण में ग्राना चाहता हूँ । क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वारणी शक्तिशाली है— उनको मैं अवधारण करता हूँ । हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्हीं पहले पूर्वयाया [पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक ] हो । ३२१ X ३२०. दी फिलॉसफीज ऑव इण्डिया, पृ० २१७ डा० जिम्मर | (ख) अहिंसावाणी वर्ष १२ अंक ६, पृ० ३७६, डाक्टर कामताप्रसाद के लेख में भी उद्धृत । असूतपूर्वा वृषभो ज्यायनिमा अरय शुरुधः सन्ति पूर्वीः । दिवो न पाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवोदधाये || भूषन् । ३२१. मखस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभि वाचमृताय इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां विशां देवी नामुत पुर्वयाया ॥ Jain Education International - ऋग्वेद ५२-३८ For Private & Personal Use Only - ऋग्वेद २।३४।२ www.jainelibrary.org

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