Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 161
________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन भगिनीद्वय ने बाहुवली को नमन किया, और कहा-"हस्ती पर आरूढ व्यक्ति को कभी केवल ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती, अतः नीचे उतरो"२७२- ये शब्द बाहुबली के कर्ण कुहरों में गिरे, चिन्तन का प्रवाह बदला,- कहाँ है यहाँ हाथी ? क्या अभिप्राय है इनका ? हाँ, समझा, मान हाथी है और मैं उस पर आरूढ हैं। मैं व्यर्थ ही अवस्था के भेद में उलझ गया । वे भाई वय में भले ही मुझ से छोटे हैं, पर चारित्रिक दृष्टि से बड़े हैं । मुझे नमन करना चाहिए।" नमन करने के लिए ज्यों ही पैर उठे कि बन्धन टूट गये । विनय ने अहंकार को पराजित किया। केवली बन गये । भगवान् के चरणों में पहुँच २७२. पुन्ने संवत्सरे भगवं बंभी सुदरीओ पत्थवेति । वि ण पत्थिताओ जेण तदा सम्म ण पडिवजिहिति, ताहे सो मग्गंतीहिं वल्लीहि य तणेहि य वेढितेण य महल्लेणं कुच्चेणं तं दट्ट रणं वंदितो ताहि, इमं च भणितो-“ण किर हत्थि विलगस्स केवलनाणं उप्पज्जइ" एवं भणिऊण गताओ। -आवश्यक चूणि-पृ० २१०-२११ (ख) पुण्णे य संवच्छरे भगवं बंभिसुदरीओ पट्टवेइ, पुदिव नेव पट्टविया जेण तया सम्मं न पडिवज्जइत्ति, ताहि सो मग्गंतीहि वल्लीतणवेढिओ दिट्ठो परूढेरणं महल्लेणं गवेणं ति । तं दट्ठ ण वंदिओ इमं च भणिओ-"न किर हत्थीविलगस्स केवल नाणं समुप्पज्जइ त्ति भणिऊरणं गयाओ। -आवश्यक नि० मल० वृत्ति० पृ० २३२ (ग) निपुणं लक्ष यित्वा तं कृत्वा त्रिश्च प्रदक्षिणाम् । महामुनि बाहुबलिं, ते वन्दित्ववमूचतुः ।। आज्ञापयति तातस्त्वां, ज्येष्ठार्य ! भगवानिदम् । हस्तिस्कन्धाधिरूढानामुत्पद्यत न केवलम् ॥ -त्रिषष्ठि० १११७८७-७८८ (घ) कल्पलता, समय सुन्दर पृ० २११११ (ङ) कल्पद् म कलिका लक्ष्मी० पृ० १५२ (च) कल्पार्थ बोधिनी पृ० १४४-१४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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