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तीर्थकर जीवन
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कि वह अधीनता स्वीकार करले। ज्योंही भरत का यह सन्देश सुना, त्योंही बाहुबली की भृकुटि तन गई। उपशान्त क्रोध उभर प्राया। दाँतों को पीसते हुए उसने कहा-"क्या भाई भरत की भूख अभी तक शान्त नहीं हुई है ? अपने लघु भ्राताओं के राज्य को छीन करके भी उसे सन्तोष नहीं हया है। क्या वह मेरे राज्य को भी हड़पना चाहता है। यदि वह यह समझता है कि मैं शक्तिशाली हूँ और शक्ति से सभी को चट कर जाऊँगा तो यह शक्ति का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है। मानवता का भयङ्कर अपमान है और व्यवस्था का अतिक्रमण है। हमारे पूज्य पिता व्यवस्था के निर्माता हैं और हम उनके पुत्र होकर व्यवस्था को भङ्ग करते हैं ! यह हमारे लिए उचित नहीं है। बाहु-बल की दृष्टि से मैं भरत से किसी प्रकार कम नहीं हूँ। यदि वह अपने बड़प्पन को विस्मृत कर अनुचित व्यवहार करता है तो मैं चुप्पी नहीं साध सकता। मैं दिखा दूँगा भरत को कि आक्रमण करना कितना अनुचित है । जब तक वह मुझे नहीं जीतता तब तक विजेता नहीं है ।२५०
भरत विराट् सेना लेकर बाहुबली से युद्ध करने के लिए "बहली देश" की सीमा पर पहुँच गये । बाहुबली भी अपनी छोटी सेना सजाकर युद्ध के मैदान में आगया । बाहुबली के वीर सैनिकों ने भरत की
२५७. जाहे ते सव्वे पव्वइता ताहे भरहेण बाहुबलिस्स पत्थवितं, ताहे
सो ते पव्वइते सोऊण आसुरत्तो भणति-ते बाला तुमे पवाविता, अहं पुण जुद्धसमत्थो । किं वा ममंमि अजिते तुमे जितं ति ? ता एहि अहं वा राया तुमं वा।
--आवश्यक चूणि, पृ० २१० (ख) कुमारेसु पव्वइएसु भरहेण बाहुबलिणो दूओ पेसिओ, सो ते पव्वइए सोउ आसुरुत्तो, ते बाला तुमए पव्वाविया ।
-आवश्यक मल० वृ० प० २३१ हृत्वाऽनुजानां राज्यानि, नूनमेष न लज्जितः । जितकासी राज्यकृते, मामप्याह्वयते यतः ।।
-त्रिषष्ठि० ११५१४६७
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