Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 155
________________ १३८ ऋषभदेव : एक परिशीलन ' सम्राट भरत को यह सूचना मिली तो वह दौड़ा-दौड़ा आया। भ्रातृ प्रेम से उसकी आँखें गीली हो गई। पर उसकी गीली आँखें अठानवें भ्राताओं को पथ से विचलित नहीं कर सकी। भरत निराश होकर पुनः घर लौट गया ।२५५-२५६ भरत और बाहुबली भरत समग्र भारत में यद्यपि एक शासनतन्त्रा के द्वारा एक अखण्ड भारतीय संस्कृति की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील थे, मगर दूसरों की स्वतन्त्राता को सीमित किये बिना उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता था। ६८ भाइयों के दीक्षित होने से यद्यपि उनका पथ निष्कण्टक बन गया था, तथापि एक बड़ी बाधा अब भी उनके सामने थी। वह थी बाहुबली को अपना आज्ञानुवर्ती बनाना। इसके लिए उसने अब अपने लघु भ्राता बाहुबली को यह सन्देश पहुँचाया (ग) अमन्दानन्दनिःस्यन्दनिर्वाणप्राप्तिकारणम् । वत्साः ! संयमराज्यं तद्, युज्यते वो विवेकिनाम् ॥ तत्कालोऽत्पन्नसंवेगवेगा भगवदन्तिके । तेऽष्टानवतिरप्याशु, प्रव्रज्यां जगृहुस्ततः ॥ -त्रिषष्ठि० १।४।८४४-८४५ प० १२० (घ) इत्याकर्ण्य विभोर्वाक्यं परं निर्वेदमागताः । महाप्रावाज्यमास्थाय निष्क्रान्तास्ते गृहाद्वनम् ॥ -महापुराण ३४।१२।१६२ २५५-२५६. आणवण भाउआणं समुसरणे पुच्छ दिद्वन्तो। -आव०नि० गा० ३४८ (ख) जदि भातरो मे इच्छंति तो भोगे देमि, भगवं च आगतो, ताहे भाउए भोगेहि निमंतेति, ते ण इच्छंति वंतं असितु। -आवश्यक चूणि पृ० २१२ (ग) भरतोऽपि भ्रातृप्रव्रज्याकर्णनात् सञ्जातमनस्तापोऽधृति चक्रे, कदाचिद्भोगादीन् दीयमानान् पुनरपि गृह्णन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् । -आवश्यक मल० वृ०प० २३५ . (ध) त्रिषष्ठि०. १।६।१६०-१६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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