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तीर्थङ्कर जीवन
१३३ भगवान् बोले-पुत्रो ! तुम्हारा चिन्तन ठीक है। युद्ध भी बुरा है और कायर बनना भी बुरा है। युद्ध इसलिए बुरा है कि उसके अन्त में विजेता और पराजित दोनों को ही निराशा मिलती है। अपनी सत्ता को गँवाकर पराजित पछताता है और शत्रु बनाकर विजेता पछताता है । कायर बनने की भी मैं तुम्हें राय नहीं दे सकता, मैं तुम्हें ऐसा राज्य देना चाहता हूँ, जो सहस्रों युद्धों से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता। ___ भगवान् की अाश्वासन-भरी वाणी को सुनकर सभी के मुखकमल खिल उठे, मन-मयूर नाच उठे । वे अनिमेष दृष्टि से भगवान् को निहारने लगे, किन्तु भगवान् की भावना को छू नहीं सके । यह उनकी कल्पना में नहीं आ सका कि भौतिक राज्य के अतिरिक्त भी कोई राज्य हो सकता है। वे भगवान् के द्वारा कहे गये राज्य को पाने के लिए व्यग्र हो गये । उनकी तीव्र लालसा को देखकर भगवान् बोले :
"भौतिक राज्य से आध्यात्मिक राज्य महान् है,२४६ सांसारिक
त्यज्यन्तामाशु राज्यानि, सेवा वा क्रियतां मम । आदिदेशेति पुरुषैर्भरतो नः परानिव ॥ वचोमात्रेण मुञ्चामस्तस्याऽऽत्मबहुमानिनः । तातदत्तानि राज्यानिः क्लीबा इव कथं वयम् ? सेवामपि कथं कुर्मो, निरीहा अधिकद्धिषु ?। अतृप्ता एव कुर्वन्ति सेवां मानविघातिनीम् ॥ राज्यामुक्तावसेवायां युद्ध स्वयमुपस्थितम् । तातपादांस्त्वनापृच्छ्य, न किंचित् कतु मीश्महे ॥
-त्रिषष्ठि १।४।८२१-८२६ २४६. आवश्यक चूणि पृ० २०६ । (ख) ताहे सामी भोगेसु नियत्तावेमाणो तेसि धम्म कहेइ, न मुत्तिसरिसं सुहमत्थि ।
-आवश्यक मल० वृ० पृ० २३१ (ग) दीक्षा रक्षा गुणा भृत्या दयेयं प्राणवल्लभा । इति ज्यायस्तपोराज्यमिदं श्लाध्यपरिच्छदम् ।।
-महापुराण ३४११२४।१६१ द्वि० भा०
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