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ऋषभदेव : एक परिशीलन
आपके द्वारा प्रदत्त राज्य पर भाई भरत ललचा रहा है। वह हम से राज्य छीनना चाहता है ।२४४ क्या बिना युद्ध किये हम उसे राज्य दे देवें? यदि हम देते हैं तो उसकी साम्राज्य लिप्सा बढ़ जायेगी और हम पराधीनता के पंक में डूब जायेंगे । भगवन् ! क्या निवेदन करें? भरतेश्वर को स्वयं के राज्य से सन्तोष नहीं हुआ तो उसने अन्य राज्यों को अपने अधीन किया किन्तु उसकी तृष्णा वडवाग्नि की तरह शान्त नहीं हो रही है। वह हमें आह्वान करता है कि या तो तुम मेरी अधीनता स्वीकार करो, या युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जानो। आपश्री के द्वारा दिये गये राज्य को हम क्लीब की तरह उसे कैसे अर्पित कर दें ? जिसे स्वाभिमान प्रिय नहीं है वही दूसरों की गुलामी करता है । और यदि हम राज्य के लिए अपने ज्येष्ठ भ्राता से युद्ध करते हैं तो भ्रातृ-युद्ध की एक अनुचित परम्परा का श्रीगणेश हो जाता है, अतः आप ही बताए, हमें क्या करना चाहिए ?२४५
(ग) ते दूतानभिधायैवं, तदेवाऽप्टापदाचले । स्थितं समवसरणे, वृषभस्वामिनं ययुः ।।
-त्रिषष्ठि० १।४।८०८ २४४. ताहे भणंति-तुम्भेहिं दिणाति रज्जाइ हरति भाया ।
-आव० मल० वृ० पृ० २३१॥ (ख) तदानि तातपादैनः संविभज्य पृथक-पृथक् ।
देशराज्यानि दत्तानि, यथार्ह भरतस्य च ।। तैरेव राज्यैः सन्तुष्टास्तिष्ठामो विष्टपेश्वर ! । विनीतानामलङ्घ या हि मर्यादा स्वामिदर्शिता ॥
-त्रिषष्ठि ११४८१६-८२० २४५. (क) तो किं करेमो ? किं जुज्झामो उदाहु आयाणामो ?
- आवश्यक मल० वृ० पृ० २३१ (ख) आवश्यकचूणि, पृ० २०६।।
स्दराज्येनाऽन्यराज्यश्चाऽपहृतैर्भरतेश्वरः । न सन्तुप्यति भगवन् ! वडवाग्निरिवाऽम्बुभिः ।। आचिच्छेद यथाऽन्येषां राज्यानि पृथिवीभुजाम् । अस्माकमपि भरतस्तद्वदाच्छेत्तुमिच्छति ।।
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