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ऋषभदेव : एक परिशीलन
सम्राट भरत ने सुन्दरी से पूछा-सुन्दरी तुम संयम लेना चाहती हो या गृहस्थाश्रम में रहना चाहती हो ? सुन्दरी ने संयम की भावना अभिव्यक्त की। सम्राट् भरत की आज्ञा से सुन्दरी ने श्री ऋषभदेव की आज्ञानुवर्तिनी ब्राह्मी के पास दीक्षा ली ।२७९ प्रस्तुत प्रसंग पर सहज ही ऋग्वेद के यमी सूक्त की स्मृति हो पाती है। भाई यम से भगिनी यमी ने वरण करने की अभ्यर्थना की, पर भ्राता यम भगिनी की बात को स्वीकारता नहीं है । जबकि यहाँ भ्राता की अभ्यर्थना बहन ठुकराती है।+
प्राचार्य जिनसेन के अभिमतानुसार सुन्दरी ने प्रथम-प्रवचन को श्रवण कर ब्राह्मी के साथ ही दीक्षा ग्रहण की थी ।२४० अठानवें भ्राताओं को दीक्षा
यह बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों को पृथक्पृथक् राज्य देकर श्रमरण बने थे। सम्राट् भरत चक्रवर्ती बनना चाहते
तथा यदेव देवेन, प्रव्रजन्ती न्यषिध्यत । ततः प्रभृत्यसौ तस्थौ, भावतः संयतैव हि ॥
-त्रिषष्ठि ११४१७४५-७४६ (ख) तेहि सिट्ठ-जहा आयंबिलेण पारेति, ताहे तस्स पयगुरागो जाओ।
-आवश्यक चूर्णि, पृ० २०६ २३६. भणति-जदि तातं भजसि तो वच्चतु पव्वयतु, अह भोगट्टी तो अच्छतु, ताहे पादेसु पडिता, विसज्जिया, पव्वइया ।
-आवश्यकचूणि पृ० २०६ (ख) सा य भणिया जइ रुच्चति तो मए समं भोगे भुजाहि; ण वि तो पव्वयाहित्ति । ताहे पाएसु पडिया विसज्जिया पव्वइया।
-आवश्यक सूत्र मल० वृत्ति पृ० २३१११ + दर्शन अने चिन्तनः भ० ऋषभदेव अने तेमनो परिवार
- पृ० २३६-२३७ पं० सुखलालजी २४०. सुन्दरी चात्रनिदा तां ब्राह्मीमन्वदीक्षित ।
-- महापुराण पर्व २४. श्लो० १७७, पृ० ५६२
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