Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 146
________________ तीर्थंकर जीवन १२६ अनुचरों को फटकारते हुए उन्होंने कहा- ज्ञात होता है कि मेरे जाने के पश्चात् तुम लोगों ने सुन्दरी की कोई सुध-बुध नहीं ली है । क्या मेरे भोजनालय में भोजन की कमी है, क्या वैद्य और औषधियों का अभाव है ?२३७ अनुचरों ने नम्र निवेदन करते हुए कहा - नाथ ! न भोजन की कमी है और न चिकित्सकों का ही प्रभाव है, किन्तु जिस दिन से आपने सुन्दरी को संयम लेने का निषेध किया उसी दिन से ये निरन्तर चालव्रत कर रही हैं । हमारे द्वारा अनेक बार अभ्यर्थना करने पर भी ये प्रतिज्ञा से विचलित नहीं हुई हैं | 234 ( ख ) षष्टि वर्षसहस्राणि विरहाद् दर्शनोत्सुकान् । अदर्शयन् निजान् राज्ञो नियुक्तपुरुषास्ततः ॥ ततः कृशां ग्रीष्मकालाक्रान्तामिव तरङ्गिणीम् । म्लानां हिमानी सम्पर्कवशादिव सरोजिनीम् ॥ प्रनष्टरूपलावण्यां, मन्दुकलामिव । पाण्डुक्षामकपोलां च रम्भां शुष्कदलामिव ।। सोदरां बाहुबलिनः सुन्दरीं गुणसुन्दरः । नामग्राहं स्वपुरुषैर्दश्र्श्यमानां ददर्श सः ।। तथाविधां च सम्प्रेक्ष्य तां परावर्तितामिव । सकोपमवनीपालः, स्वायुक्तानित्यवोचत | - त्रिषष्ठि १।४।७३० से ७३४ (ग) भारहं वासं अभिजिणिऊण अतिगओ विणीयं रायहाणिति, एवं परिवाडीए सुन्दरी दाइया, सा पण्डुल्लुगितमुही जाया । - आवश्यक मलयगिरीय पृ० २३१ । १ २३७. किं मम णत्थि जं एसा एरिसी रूवेणं जाता ? वेज्जा वा नत्थि ? आवश्यक चूर्णि, पृ० २०६ २३८. किन्तु देवो यदाद्यगाद, दिग्जयाय तदाद्यसौ । आचामाभ्लानि कुरुते, प्राणत्राणाय केवलम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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