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तीर्थङ्कर जीवन
पहुँचते ही श्री ऋषभदेव को ज्यों ही समवसरण में इन्द्रों द्वारा अचित देखा त्यों ही चिन्तन का प्रवाह बदला। आर्त ध्यान से शुक्ल ध्यान में लीन हुई । ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा, मोह का बन्धन सर्वा शतः टूटा । वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय को नष्ट कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन की धारिका बन गई१६९ और उसी क्षण शेष कर्मों को भी नष्ट कर हस्ती पर आरूढ़ ही सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई।१७०
दरिसेमि, जदि एरिसिया ममं सहस्सभागेणवि अत्थि ति, ताहे हत्थिखंधेण णीति ।
-आवश्यक चूणि-जिन० पृ० १८१ (ख) मम पुत्तस्स एरिसी रज्जसिरी आसि संपयं सो खुहापिवासापरि
गओ नग्गओ, हिंडइत्ति उव्वयं करियाइया भरहस्स तित्थगरविभूई वन तस्मवि न पत्तिच्चियाइया, पुत्तसोगेण य से किल झामलं चक्खु जायं रुयंतीए........
-आवश्यक मलय० वृत्ति० पृ० २२६ १६६. भगवतो य छत्तादिच्छत्तं पेच्छंतीए चेव केवलनाणं उप्पन्न,
-आव० चूणि० पृ० १८१ (ख) ततो तीए भगवओ छत्ताइच्छत्तं पासंतीए चेव केवलमुप्पण्णं
. -आव० मल० वृ० २२६ (ग) साऽपश्यत् तीर्थकृल्लक्ष्मी सूनोरतिशयान्विताम्,
तस्यास्तद्दर्शनानन्दात् तन्मयत्वमजायत । साऽऽरुह्य क्षपकोणिमपूर्वकरणक्रमात । क्षीणाष्टकर्मा युगपत्, केवलज्ञानमासदत् ॥
-त्रिषष्ठि० १॥३॥५२८-५२६ १७०. तं समयं च णं आयु खुट्ट सिद्धा, देवेहि य से पूया कता।
-आवश्यक चूणि० जिन० पृ० १८१ (ख) करिस्कन्धाधिरुढव स्वामिनी मरुदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन, प्रपेदे पदमव्ययम् ।।
-~~-त्रिपष्ठि० ११३१५३०
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