Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 133
________________ ११६ ऋषभदेव : एक परिशीलन ने कल्पलता में और लक्ष्मीवल्लभ जी ने कल्पद्र म कलिका८८ में ऋषभसेन के स्थान पर पुण्डरीक नाम दिया है किन्तु जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायाङ्ग, कल्पसूत्र, अावश्यक मलयगिरीय वृत्ति, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र प्रभृति ग्रन्थों में प्रथम गणधर का नाम पुण्डरीक नहीं, ऋषभसेन ही दिया है। १८९ यहाँ तक कि समयसुन्दर जी व लक्ष्मीवल्लभ जी ने भी कल्पसूत्र के मूल में ऋषभसेन नाम ही रक्खा है। हमारी दृष्टि से भगवान् श्री ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे उनमें से एक गणधर का नाम पूण्डरीक था, जो भगवान् के परिनिर्वाण के पश्चात् भी संघ का कुशल नेतृत्व करते रहे थे । सम्भव है इसी कारण समयसुन्दर जी व लक्ष्मीवल्लभ जी को भ्रम हो गया और उन्होंने टीकाओं में ऋषभसेन के स्थान पर पुण्डरीक नाम दिया, जो अनागमिक है । उत्तराधिकारी हाँ, तो प्रथम गणधर ऋषभसेन को ही भगवान् ने आत्मविद्या का परिज्ञान कराया। वैदिक परम्परा से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आत्म-विद्या क्षत्रियों के अधीन रही है। पुराणों की दृष्टि से भी क्षत्रियों के पूर्वज भगवान् श्री ऋषभदेव ही हैं । १९० १८७. तेषां मध्यात् पुण्डरीकादयः चतुरशीतिगणधरा जाताः -कल्पलता-पृ० २०७ १८८. तत्र पुण्डरीकः प्रथमो गणभृत् स्थापितः --कल्पद्रु म कलिका पृ० १५१ १८६. देखिए १८४ नं० का टिप्पग १६०. ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्व-क्षत्रस्य पूर्वजम् । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र-शताग्रजः ।। -ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्वार्ध छनुषंगपाद अध्या० १४ श्लो० ६० (ख) नाभिस्त्वजनयत्पुत्रं मरुदेव्यां महाद्य तिः। ऋषभं पार्थिव-श्रोष्ठं सर्व-क्षत्रस्य पूर्वजम् ।। -वायुमहापुराण, पूर्वार्ध अध्या० ३३, श्लो० ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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