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ऋषभदेव : एक परिशीलन
श्रमण द्रव्य और भाव से मुण्डित होते हैं, सर्व प्राणातिपातविरमरण महाव्रत के धारक होते हैं, पर मैं शिखासहित क्षुरमुण्डन कराऊँगा और स्थूलप्रारणातिपात का विरमरण करूँगा । २०७
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श्रमण अकिंचन तथा शील की सौरभ से सुरभित होते हैं, पर मैं परिग्रहधारी रहूँगा और शील की सौरभ के प्रभाव में चन्दनादि की सुगन्ध से सुगन्धित रहूँगा ।२०८
श्रम निर्मोह होते हैं, पर मैं मोह ममता के मरुस्थल में घूम रहा हूँ, उसके प्रतीक के रूप में छत्र धारण करूंगा । श्रमरण नंगे पैर होते हैं, पर में उपानद् पहनू गा । २०९
श्रमण जो स्थविर कल्पी हैं वे श्वेतवस्त्र के धारक हैं और जिनकल्पी निर्वस्त्र होते हैं, पर मैं कषाय से कलुषित हैं, अतः काषाय वस्त्र धारण करूँगा । २१०
( ख ) त्रिषष्ठि० १|६ । १५ ५० १५०
२०७. लोइ दियमुंडा संजया उ अहय खुरेण ससिहो अ । वेरमणं मे सया होउ ||
थूलगपाणिवहाओ,
- आव० नि० गा० ३५४ म० वृ० २३३॥ शिरः केशलुञ्चनेन्द्रियनिर्जयैः ।
( ख ) अमी मुण्डाः अहं पुनर्भविष्यामि क्षुरमुण्डशिखाधरः ||
त्रिषष्टि० १।६।१६। प० १५० २०८. निक्किचणा य समणा अकिंचणा मज्झ किंचरण होउ । सील सुगंधा समणा अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥
- आव० नियुक्ति० गा० ३५५
( ख ) त्रिषष्ठि ० १ | ६।१६।१५०११
२०६. ववगयमोहा समणा मोहाच्छन्नस्स छत्तयं होउ ।
अरणुवाणहा य समणा मज्भं तु उवाहणे हुतु || -आव० नियुक्ति० गा० ३५६
( ख ) त्रिषष्ठि ० १ | ६ |२०११५०।१
२१०. सुक्कंबरा य समणा निरंबरा मज्झ धाउरत्ताइ । हृतु इमे वत्थाई, अरिहो मि कसायकलुसमई ॥
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- आवश्यक नियुक्ति० गा० ३५७
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