Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

Previous | Next

Page 138
________________ तीर्थङ्कर जीवन १२१ श्रमरण पापभीरु और जीवों की घात करने वाले आरंभादि से मुक्त होते हैं । वे सचित्त जल का प्रयोग नहीं करते हैं । पर मैं वैसा नहीं हूँ, अतः स्नान तथा पीने के लिए परिमित जल ग्रहरण करूँगा । २११ इस प्रकार उसने अपनी कल्पना से परिकल्पित परिवाजकपरिधान का निर्माण किया २ १२ और भगवान् के साथ ही ग्राम नगर आदि में विचरने लगा । १३ भगवान् के श्रमणों से मरीचि की पृथक् वेशभूषा को निहारकर जन-जन के अन्तर्मानस में कुतूहल उत्पन्न होता | लोग जिज्ञासु बनकर उसके पास पहुँचते । २१४ मरीचि अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा की तेजस्विता से प्रतिबोध देकर उन्हें भगवान् के शिष्य २१५ बनाता एक समय सम्राट् भरत ने भगवान् श्री ऋषभदेव के समक्ष ( ख ) त्रिषष्ठि ० १ १६ । २१ । १५०।१ २११. वज्जंतऽवज्जभीरू, बहुजीवसमाउ होउ मम परिमिएरणं, जलेण पहाणं च जलारंभं । पिअरणं च ।। - आवश्यक नि० गा० ३५८ ( ख ) त्रिषष्टि० १ | ६।२२।१५०।१ । २१२. एवं सो रुइयमई निअगमइविगप्पित्रं इमं लिंगं । - आव० नि० गा० ३५६ (ख) स्वबुद्धया कल्पयित्वैवं मरीचिलिङ्गमात्मनः । Jain Education International - त्रिषष्ठि १।६।२३ । १५१।१ २१३. गामनगरागराई, विहरइ सो सामिणा सद्धि । - आवश्यक नियुक्ति ३६० १० २३४ २१४. अह तं पागडरूवं दट्टु पुच्छेइ बहुजणो धम्मं । कहइ जईगं तो सो विआलणे तस्स परिकहणा || - आवश्यक नियुक्ति गा० ३८८ २१५. धम्महाअक्खित्त उवट्ठिए देइ भगवओ सीसे । - आवश्यक नियुक्ति ३६० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194