Book Title: Rishabhdev Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 141
________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन बनाऊँगा । २२१ वह स्वस्थ हुया । कपिल राजकुमार धर्म की जिज्ञासा से उसके पास आया। उसने ग्रार्हती दीक्षा की प्रेरणा दी। कपिल ने प्रश्न किया "आप स्वयं प्रति धर्म का पालन क्यों नहीं करते ?" उत्तर में मरीचि ने कहा - " मैं उसे पालन करने में समर्थ नहीं हूँ ।" कपिल ने पुनः प्रश्न किया -- क्या आप जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं उसमें धर्म नहीं है ?” इस प्रश्न ने मरीचि के मानस में तूफान पैदा कर दिया और उसने कहा - " यहाँ पर भी वही है जो जिन धर्म में है । २२२ कपिल उसी का शिष्य बना । १२४ अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः साधवोऽप्यसंयतत्त्वान्न प्रतिजाग्रति । स चिन्तयति-निष्ठितार्थाः खल्वेते, नासंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतान् कारयितुं युज्यते, तस्मात्कंचन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति । - आव० मल० वृ० प० २४७।१ (ख) त्रिषष्ठि १/६/२६-३२ पृ० १५० । (ग) महावीर चरियं, गुण० ६।२६-३२ · २२२. अपगतरोगस्य च कपिलो नाम राजपुत्रो धर्म्मशुश्रूषया तदन्तिकमागत इति कथिते साधुध स आह— यद्ययं मार्गः किमिति भवर्ततदङ्गीकृतं ? मरीचिराह - पापोऽहं " लोए इंदिये" त्यादि विभाषा पूर्ववत्, कपिलोऽपि कर्मोदयात् साधुधर्म्मानभिमुखः खल्वाहतथापि किं भवद्दर्शने नास्त्येव धर्म इति ? मरीचिरपि प्रचुरकर्म्मा खल्वयं न तीर्थकरोक्तं प्रतिपद्यते, वरं मे सहायः संवृत्त इति सञ्चिन्त्याह--' कपिला एत्थं पि' त्ति.... 1 -- आवश्यक नियुक्ति मलय० वृ० प० २४७ । १ (ख) मरीचिमाययौ भूयः स इत्यूचे च किं तव ? योऽपि सोऽपि न धर्मोऽस्ति, निर्धर्म किं व्रतं भवेत् ? - त्रिषष्ठि० १|६|४८ २२१. (ग) कविलेण वृत्तं - भयवं ! तुम्ह संतिए एत्थ तहावि अत्थि कि पि णिज्जराठाणं न वा ! मिरिइणा भणिय - भद्द ! समणधम्मे ताव अस्थि, इहावि मणागं ति । - महावीर चरियं० गुण० १० २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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