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द्वितीय अध्याय
साधक-जीवन
साधना के पथ पर
सम्राट् श्री ऋषभदेव ने दीर्घकाल तक राज्य का संचालन किया, प्रजा का पुत्रवत् पालन किया, प्रजा में फैली हुई अव्यवस्था का उन्मूलन किया, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार किया, नीति मर्यादाओं को कायम किया। वे प्रजा के शोषक नहीं, पोषक थे, शासक ही नहीं सेवक भी थे । श्रीमद्भागवत के अनुसार उनके शासन काल में प्रजा की एक ही चाह थी कि प्रतिपल प्रतिक्षरण हमारा प्रेम प्रभु में
(ख) अप्रवृत्तिः कृतयुगे कर्मणोः शुभपापयोः ।
वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च तदाऽऽसन्न संकरः ।। त्रेतायुगे त्वविकलः कर्मारम्भः प्रसिद्धध्यति । वर्णानां प्रविभागाश्च त्रेतायां तु प्रकीर्तिताः ।। शान्ताश्च शुष्मिणश्चैव कमिणो दुःखिनस्तथा । ततः प्रवर्तमानास्ते त्रेतायां जज्ञिरे पुनः ।।
-वायुपुराण ८।३३।४६।५७ आदि अध्याय (ग) तस्मान्न गोऽश्ववत् किंचिज्जातिभेदोस्ति देहिनाम् । कार्यभेदनिमित्तेन संकेतः कृत्रिमः कृतः ॥
-भविष्य पुराण, अध्याय ४ शिष्टानुग्रहाय, दुष्टनिग्रहाय, धर्मस्थितिसंग्रहाय च, ते च राज्यस्थितिश्रिया सम्यक् प्रवर्तमानाः क्रमेण परेषां महापुरुषमार्गोपदेशकतया चौर्यादिव्यसननिवर्तनतो नारकातिर्यानिवारकतया ऐहिका
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