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साधक - जीवन
सहस्र साथियों को भगवान् ने प्रवृज्या प्रदान नहीं की, किन्तु उन्होंने भगवान् का अनुसरण कर स्वयं ही लुंचन आदि क्रियाएँ कीं । ३६ विवेक के अभाव में
भगवान् श्री ऋषभदेव श्रमरण बनने के पश्चात् अखण्ड मौनवृती बनकर एकान्त-शान्त स्थान में ध्यानस्थ होकर रहने लगे । ३७ जिनसेन के अनुसार उन्होंने छह महीने का अनशन व्रत अंगीकार किया । श्वेताम्बर साहित्य में ऐसा स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । वहाँ भिक्षा के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, वह इस प्रकार है—घोर
(ङ) चतुःसहस्रगणना नृपाः प्रावाजिपुस्तदा । गुरोर्मतमजानाना स्वामिभक्त्यैव केवलम् ॥ यदस्मै रुचितं भर्त्रे तदस्मभ्यं विशेषतः । इति प्रसन्नदीक्षास्ते केवलं द्रव्यलिङ्गिनः ॥
त्रिषष्ठि १२७८ से ५० प० ७० ।
(च) १३६. चउरो साहसीओ, लोयं काऊण अप्पणा चेव । एस जहा काही तं तह अम्हेवि
काहामो ॥
-- आवश्यक नियुक्ति गा० ३३७
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- महापुराण पर्व १७ श्लो०२१२ - २१३ पृ० ३६१
१३७. (क) णत्थि गं तस्स भगवंतस्स कत्थइ परिबंधे ।
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-- जम्बू ० प्र० २ वक्षस्कार सू० ३६
(ख) अथ कार्य समुत्सृज्य तपोयोगे समाहितः । वाचंयमत्वमास्थाय तस्थौ विश्वेड् विमुक्तये | षण्मासानशनं धीरः प्रतिज्ञाय महाधृतिः । ariarनिरुद्धान्तर्बहिष्करण विक्रियः
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-- महापुराण १८११-२ पृ० ३६७
(ग) जडान्धमूकवधिरपिशाचोन्मादकवदवधूत वेषोऽभिभाव्यमाणोऽपि जनानां गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव ।
--भागवत ५।५।२६ पृ० ५६३
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