Book Title: Ratnakarsuri Krut Panchvisi Jinprabhsuri Krut Aatmnindashtak Hemchandracharya Krut Aatmgarhastava Author(s): Ratnakarsuri, Jinprabhsuri, Hemchandracharya Publisher: Balabhai Kakalbhai View full book textPage 8
________________ (७) दत्तं न दानं परिशीवितं च, न शालि शीलं न तपोनितप्तम् ; शुजो न नावोऽप्यनव भवेस्मिन्, विनो मया ब्रांतमहो मुधैव॥४॥ शब्दार्थः-हे प्रनु ! में दान दीधुं नहीं, में सुंदर शील पाट्युं नहीं, म तप कयों नहीं, मने सारो जाव पण थयो नहीं, माटे अहो ! में व्यर्थज आ संसारमा व्रमण कयु ॥४॥ व्याख्या:-हे विनो का हे स्वामिन् ! मया दानं न दत्तं केए में कृपणपणाए करी सत्पात्रने विषे धननो विनियोग को नहि, अने शालिशीलं के मनाझ एवा ब्रह्मचर्यने न परिशीलितं के पालन कर्यु नहि. तेमज तपः न अनितप्तं के बाह्य अने अंतरंग. रुप बार प्रकारनुं तप कर्यु नहि. तेमज शुनः नावोपि के कल्याणकारक एवो लावपण नालवत् के मने प्राप्त थयो नहि. ( माटे. अहो इति खद ! में मुधैव के व्यर्थज अस्मिन्नवे के आ संसा-. रने विषेत्रांत के जमण कयु. मारा हाथथी कांज सत्कर्म बन्यु नहि एवो अर्थ. ॥४॥Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64