Book Title: Ratnakarsuri Krut Panchvisi Jinprabhsuri Krut Aatmnindashtak Hemchandracharya Krut Aatmgarhastava
Author(s): Ratnakarsuri, Jinprabhsuri, Hemchandracharya
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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(२५) कताविनाप्तः; स्फुरत्प्रना न (प्रधान) प्रनुता च कापि, तथाप्यहंकारकदर्थितोऽहं ॥२५॥
शब्दार्थः-माझं शरीर सुंदर नथी,तेमज शुरू गुणोनो समूह पण ( मारामां ) नयी, (तेमज) कोश पण कलानो विलास, अने कोई पण प्रकारनी देदो. प्यमान एवी कांति के प्रधाननी ऐश्वर्यता (मारामां) नथी तोपण हुं श्रहंकारे परानव पामेलो बुं ॥ १५ ॥ ___ व्याख्याः -हे जिनेश, मे अंग चंग न के मारुं शरीर सुंदर नथी, तेमज निर्मल के मलरहित एवा गुणानां गणो न के० विनय, औदार्य, गांजीय, धैर्य, स्थैर्य अने चातुर्य इत्यादिक गुणोनो समूह पण नथी. तेमज कोपि के कोपण कलाविलासः के कलानुं नद्दीपन थर्बु अने कापि केस कोइपण प्रकारनी स्फुरत्मधान प्रभुता के देदीप्यमान एवी जे राजाननी प्रसूता के0 चक्रवर्तिपणु अथवा देदीप्यमान एवं प्रधाननी के अधिकारी पुरु. पनी प्रभुता के ऐश्वर्यता ते पण नथी; तथापि हे प्रनो ! अहं अहंकार कथितः अस्मि के हुं अहंकारे करीने पराजय पामेलो एवो छ अथवा पागंतरे स्फुरत्यत्रा, न के० देदिप्यमान कांति पण नथी. ॥ १५ ॥