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श्री रत्नाकरसूरिजी कृत पंचवीसी श्री जिनप्रजसूरिजी कृत च्यात्मनिंदा अष्टक
तथा
श्री हेमचंद्राचार्य कृत आत्मगर्दास्तव बुटा शब्दोना कार्य, गाथा, शब्दार्थ विगेरे साथे.
उपावी प्रसिद करनार शा. बालाजाई ककलमाई.
संवत १९६५
श्री लक्ष्मी प्रिन्टिंग प्रेस-अमदावाद,
कींमत १ आना.
Fm 11
શેઠ હઠી
સ્થાનઃ.
04.10 snis: 24os
●
45
n's
सने १९०९
ॐ विश्वाय नेभिसूरि-शा
શાસન સમ્રાટ ભવન
S5 nou
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॥ श्री रत्नाकरसूरिजी कृत पंचवीसी ॥
॥ गाया १ लीना बुटा शब्दांना अर्थ. ॥
श्रेयः = मोहनी
श्रियां लक्ष्मीनुं
मंगल - कल्याण कलि-क्रिमा
सद्म=घर
नरेंड् - चक्रवता
देवें- देवताना शेए
नत-नमेला बे; वंदन कर्या बे
प्रघ्रिपद्म= चरणकमल
सवक्=समस्त वस्तुना जालनारा सर्वातिशय-बधा अतिशयोए
करी प्रधान-मोटा
चिरं = लांबा वखत सुधी जय = जयवंता वर्तो
ज्ञान- केवलज्ञान
कला - बोहोतेर कला निधान- जंडार
श्रेयः श्रियां मंगल के लिसद्म, नरेंद्र देवेंद्र - नतांघ्रिपद्म ॥ सर्वज्ञ सर्वातिशयप्रधान, चिरं जय ज्ञानकला निधान ॥ १ ॥
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( १ )
शब्दार्थः - मोक लक्ष्मीना कल्याण की मागृह, चक्रवर्ती ने देवेंद्रए जेमना चरण कमलने वांद्या बे एवा हे सर्वज्ञ ! सर्वातिशय प्रधान, हे ज्ञान कला निधान ! तमे घणा काल पर्यंत जयवंता वर्तो ॥ १ ॥
रत्नाकर पचीसोनो विस्तारार्थे.
,
व्याख्या:- हें नरेंड़ देवेंश्नतांत्रिपद्म, नरेंड़ के चक्रवर्त्यादिक देवें के अमरेशदिक एटले मनुष्यना इंड़ ते नरेंड़ अने 'देवोना इं ते देवेंड़, तेनए जेनां चरणकमलने वंदन कर्या ब; एवा हे नरें देवेंनतांत्रिपद्म ! ने समस्त वस्तुना जानारा माटे हे सर्वज्ञ ! संपूर्ण जे निरोगादिक अतिशय - तेणे करी प्रधान, ' माटे हे सर्वातिशय प्रधान ! ने ज्ञान के० कवलज्ञान अने बहोर कला, तेना निधान के निधि एवा हे ज्ञान - निधान ! श्रेयसः के० मोहनी जे श्रीके० लक्ष्मी तेना बगल के कल्याणनुं, के लिसन के० क्रीमानुं गृह, एवा हे मंगल केलिसन के मोह लक्ष्मी कल्याण क्रीमाना मंदिर ! जक्त लोकना समस्त संकटना डर करनार तुं चिरं के० घणा काल पर्यंत जय के सर्वोत्कर्ष करीने वर्तो. ॥ १ ॥
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॥ गाथा २ जीना बुटा राख्दाना अशा जगत्रय-त्रणलोक; स्वर्ग, मृत्यु श्री (स्वयण नीवंत अने पातालने
वीतराग-रागद्वेष गया ले जेना आधार आधारभूत
त्वयि तमारी आगल कृपा-दया; मेहेरबानी मुग्ध लावात लोले जावे अवतार प्रवेश
वि-विशेष जाण उर्वार-खे करीने वारवा योग्य प्रनो हे प्रभु संसार विकार-जन्म जरा मर- विझपयामि विनंति करुं ई
णरूप रोग (मटामवा) किंचित् कांश लगार वैद्य वैद्य समान
__ जगत्रयाधार कृपावतार, दुर्वारससार विकारवैद्य; श्रीवीतराग त्वयि मुग्धनावा, विज्ञप्रनो विझपयामि किंचित् ॥२॥
शब्दार्थः हे जग जगतना श्राधार ! हे कृपावतार ! फुःखे वारवा योग्य एवो जन्म जरा मरण रूप संसार तेना विकारने दूर करवाने वैद्य समान एवा हे श्री वीतराग ! हे विशेष जाण ! हुं नमारी
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(४) आगल नोलेजावे कांश्क विनंती करूंबु. ॥॥
व्याख्या:-जगत् त्रय के स्वर्ग मृत्यु अने पातालरूप, त्रण भुवन तेना आधार के स्थानभूत एवा हे जगत्रयाधार ! कृपा के दया तेने विषे अवतार के उपदेशद्वारे करी जेनो प्रवेश बे; एवा हे कृपावतार, उार के छःखेन वारयतीति उरवार एटले निवारण करवा माटे अशक्य एवो जे संसाररूप विकार के रोग, वियोग, जरा मरणादि लक्षण-तेने विषे चिकित्साकारीपणाए करीने वैद्य सरखा हे उार संसार विकार वैद्य, वोत के गयेली ने राग के रागदशा जेनी, अने श्री के मोद लक्ष्मी तेणे सहित एवा हे श्री वीतराग ! विज्ञ के हे चतुर, हे प्रनो ! त्वयि के तारे विषे अर्थात् तारी पासे हुं मुग्ध नावात् के विशेष झान विकलपणाने लीधे मुग्ध छु, ते हुँ किंचित् के कांक विझपयामि के0 विज्ञप्ति करूं छु. ॥२॥
३
॥ गाथा ३ जीना बुटा शब्दोना अर्थ, ॥ कि शुं
बालः बालक बासलीला कलिता बालकनी पित्रोः मावापनी क्रीमाए सहित
पुरः-आगल न-नथी
जल्पति बोले ले
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निर्विकल्प: जेमतेम बिकल्प र- निजाशयं-पोतानो आशयः पोहित
तानो अभिप्राय तथा-तेम; तेवी रीते सानुशयः पश्चाताप सहित यथार्थ जेवो ले तेवो; साचेसाचो तव-तमारी कथयामि हुं कहुं बुं
अग्रे-आगल नाथ हे नाथ !
किं बाललीलाकलितो न बालः, पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः, तथा यथार्थ कथयामि नाथ, निजाशयं सानुशयस्तवाग्रे ॥ ३ ॥
शब्दार्थः-शुं बालकनी क्रीमायुक्त एवो बालक मावापनी श्रागल जेम तेम नथी बोलतो ? (बोलेज.) तेवी रीते हे नाथ ! हुँ मारो आशय जेवो ले तेवो पश्चाताप सहित तारी श्रागल कहुंढुं॥३ ___व्याख्याः-हे प्रजो जेम बाललीला कलितः के बालकनी जे लीला के धूलने विषे खेल इत्यादिक, तेणे कलित के युक्त अने निर्विकल्प के जेथी जाषण अन्नाषणरूप लेद गयो डे, एवो जे बाल ते पित्रोः पुरः के मातपितानी पासे किनजस्पति के शुं
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नथी बोलतो ? अर्थात् न बोलवानुं पण ते सर्व बोले डे, तेम हे नाथ केण्हे कल्याणकारक, सानुशयः केण्बहु पातक संपादन करू ए माटे पश्चातापे युक्त एवो हूं, तवाग्रे के तारा अग्रनागने विषे, निजाशयं के० पोताना अनिमायने, यथार्थ कथयामि के यथार्थपणे कथन करुं छ. अर्थात् ९ मारो अभिप्राय तारी पासे प्रगट करुंछ ॥३॥
॥ गाथा ४ थीना बुटा शब्दोना अर्थ. ॥
दत्तं आप्युं दी, न नहि दानं दानपरिशीलितं पाल्यु च-वली अने शालि सुंदर; मनोहर शीलं-शील तपः तप अनितप्तः तप्यो शुनसारो जाव: नाव
अपि पण अनवत्-थयो नव-नवमां अस्मिन् आ (मां) विनो-हे प्रभु ! मया मारावडे ब्रांतम्-लमायु अहो अहो अरे मुधा फोकट एवज
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(७) दत्तं न दानं परिशीवितं च, न शालि शीलं न तपोनितप्तम् ; शुजो न नावोऽप्यनव भवेस्मिन्, विनो मया ब्रांतमहो मुधैव॥४॥
शब्दार्थः-हे प्रनु ! में दान दीधुं नहीं, में सुंदर शील पाट्युं नहीं, म तप कयों नहीं, मने सारो जाव पण थयो नहीं, माटे अहो ! में व्यर्थज आ संसारमा व्रमण कयु ॥४॥
व्याख्या:-हे विनो का हे स्वामिन् ! मया दानं न दत्तं केए में कृपणपणाए करी सत्पात्रने विषे धननो विनियोग को नहि, अने शालिशीलं के मनाझ एवा ब्रह्मचर्यने न परिशीलितं के पालन कर्यु नहि. तेमज तपः न अनितप्तं के बाह्य अने अंतरंग. रुप बार प्रकारनुं तप कर्यु नहि. तेमज शुनः नावोपि के कल्याणकारक एवो लावपण नालवत् के मने प्राप्त थयो नहि. ( माटे. अहो इति खद ! में मुधैव के व्यर्थज अस्मिन्नवे के आ संसा-. रने विषेत्रांत के जमण कयु. मारा हाथथी कांज सत्कर्म बन्यु नहि एवो अर्थ. ॥४॥
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।
() ॥ गाथा ५ मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ दग्धः ताप पामेलो; दालो. ।
अजिमानाजगरेण अहंकारअग्निना अनिवडे
रूपी अजगरे क्रोधमयेन क्रोधरूप
मायाजालेन कपटरूप जालवडे दष्टः डशेलो
बद्धः बंधन पामेलो उष्टेन=5ष्ट (वम); निर्दय अस्मि हुँ ढुं लोनाख्य लोल नाम कथम् कवी रीत महा मोटा
नजे इं लजु नरगेण सर्पवमे
त्वां-तने अस्तः गलेलो.
दग्धोऽग्निना क्रोधमयेन दष्टो, दुष्टन लोनाख्यमदोरगेण यस्तोऽनिमानाजगरेण माया, जालेन बद्धोस्मि कथं नजे त्वां ॥ ५॥
शब्दार्थः-क्रोधरूपी अग्निथी ताप पामेलो, लोनरूपी मोटा निर्दय सापवझे मशेलो, अनिमान रूपी अजगरवमे गलेलो, कपटरूप जालवझे बंधाएलो हूं केवी रीते तने नजुं ? ॥५॥
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( ए )
व्याख्या:- हे नाथ! क्रोधमयेन अग्निना दग्धः के० क्रोधरूप अग्निए अत्यंत ताप पमामेलो ने डुष्टेन लोनाख्य महोरगेण दष्टः के० निर्दय एवा लोन नामे महा सर्पे ढंश करेलो, मने - निमानाजगरेण ग्रस्त के अहंकाररूपी अजगरे गलेलो, अने मायाजालेन बद्धः अस्मि के० कपटरूप जे जाल के० मत्सबंधन जाल सरखुं बंधन हेतु, तेणे बंध पामेलो हुं लुं, ए माटे त्वां कथं जेके तारूं केम सेवन करूं ? तो हे प्रनो ! तारी कृपाए क्रोध, लोन, अभिमान ने माया, एन्नो नाश यइने तारूं सेवन करवानो मारो हेतु क्यारे पूर्ण थशे ? एवो जावार्थ. ॥ ५ ॥
॥
|| गाथा ६ हीना बुटा शब्दोना अथ ॥
कृतं = करेलुं मया-में
मुत्र - परलोक
विषे
हितं - हितकारी काम, पुण्यनुं
काम.
न नहीं च = वली, अने
इहलोके - लोकमां
प्रपि-पण लोकेश - हे लोकना नाथ !
सुखं सुख
मे-मने
अनूत् =थयुं
अस्मादृशांप्रमारा सरखाना
केवलं फक्त
एव = ज
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(१०) जन्म-अवतार
जरे-थयो जिनेश हे जिनेश्वर हे केवलि । जवपूरणाय जन्मनी गणत्री पूरी पति !
करवा माटे कृतं मयाऽमुत्र हितं न चेह, लोकेऽपि लोकेश सुखं न मेऽनूत; अस्मादृशां केवलमेव जन्म, जिनेश जज्ञे नवपूरणाय ॥ ६॥
शब्दार्थः-में परलोकमां एवं कांश हितकारी काम करेलु नहि अने (तेथी) हे लोकेश ! आलो. कने विषे पण मने सुख मट्युनहि (माटे ) हे जि. नेश ! अमारा सरखानो जन्म फक्त जन्मनी गणत्री करवा माटेज थयो. ॥६॥
व्याख्याः -मया अमुत्रहितं न कृतं के में परलोकने विषे एवं पुण्य कृत्य कर्यु नहि, अने हे लोकेश ! के षद् कायना स्वामि एवा हे लोकेश ! इहलोकेपि मे सुखं ना जू के आ लाकने विषे पण मने मुख प्राप्त थयुं नहि. ए माटे हे जिनेश के हे केवलिपते ! अस्मादृशां जन्म के अमारा सरखाना अवतार ते, केवलं नव पूरणायैवजझे के केवल अवतार गणनाना पूरणने
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( ११ )
माटे एटले जेम पूर्वे अमारा घणा अवतार यया तेमज या पण एक अवतार, जन्म गणनाना पूरण माटेज थयो. ॥ ६ ॥
|| गाथा ७ मीना बुटा शब्दांना अर्थ ॥
मन्ये हुं मानुं हुं
मनः- मन
यत् = जे
न=नहीं
मनोइ = सुंदर
वृत्तं-शील; वर्तुल
त्वदास्य= तारुं मुख
पीयूष = अमृत मयूख= किरण
लाजाव-लानथी
डुतं - पीगल्युं; द्रवीभूत थयुं महानंद रसं - मोटो आणंदरूपी
रस
कठोरं-कठण
अस्मादृशां = अमारा सरखानुं
देव हे देव ! हे नाथ !
तत्-ते
अश्मतः- पाषाणाथी अपि-पल
मन्ये मनो यन्न मनोज्ञवृत्तं, त्वदास्य पीयूषमयूखवाजात्; द्रुतं महानंदरसं कठोरे, मस्मादृशां देव तदश्मतोऽपि ॥ ७ ॥
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(१५) शब्दार्थः-हे देव ! हुँ (एम) मानुडं के अमारा सरखार्नु मन सुंदर वर्तुल (जेवा) तारा मुखरुप अमृत किरणना लालथी मोटा थानंदरूप र. सने अवीनूत थयुं नहीं तेथी ते पथरथी पण कठण जाणवू ॥७॥
व्याख्या:-हे दव के हे नाथ ! हुं एबुं मार्नु छ के, यदस्मादृशां मनः के जे अमारा सरखार्नु मन, मनोज्ञ के सुदर, वृत के वर्तुल एवं जे त्वदास्य के तारूं मुख, तेज कोइ एक, पीयूष मयूख के अमृतकिरण चं, तेना लाने करीने अथवा मनोइ के सारं ने वृत्त के शील जेनुं, एवा हे मनोवृत्त, हे वीतराग ! तारा मुख चंना लाने करीने महानंदरसं के सद्यारसा स्वादथी नत्पन्न थएली जे परम प्रीति तेज कोई एक रस के नदक तेने न पुतं के इवीनूत थयुं नथी; तदश्मतोपि कगरं के ते पाषाण करतां पण कठण जाणवं. कारण, चंइना दर्शने करीने जीवरहित एवो पण चंकांत पाषाण चीजूत थाय , अने मनने तो तारा - मुखरुप चंइना दर्शने करी इव के पिंगलवु प्राप्त थयुं नहि. ते कारण माटे ते मन, पाषाण करतां पण कगेर जाणq. एवो नावार्थ. ॥७॥
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॥ गाथा - मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ त्वतः ताराथी
प्रमाद-प्रमाद, नूल, बेदरकारी. सुदुःपापम् घणा अखे मल- निश-नंघ (ना) वी शकाय एवं
वशतः वशथीं इदं आ
गतंगयु मया में मारावडे
तत्-ते आप्तं-मेलव्यु
कस्य कोनी रत्नत्रयं रत्नत्रिक ज्ञान दर्शन अग्रता आगल चारित्र
नायक हे स्वामिन् ! जूरि-घणा
पूत्करामि-पोकार करूं जवज्रमेण जव जमवावमे करी।
त्वतः सुःप्रापमिदं मयाप्तं, रत्नत्रयं नूरि नवन्त्रमेण, प्रमादनिद्रावशतो गतं तत्कस्याग्रतो नायक पूत्करोमि ॥ ७ ॥
शब्दार्थः-घणा पुःखे मेलवी शकाय एवं आ रत्नत्रय (त्रण रत्न ) हुँ ताराथी पाम्यो, पण ते घणा जव जमवावमे करीने तथा प्रमाद अने निशाना
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(१४) वशथी जतुं रहुं तो हे स्वामिन् ! कोनी आगल हुँ पोकार करूं ॥ ७॥ ___ व्याख्याः-हे नायक हे स्वामिन् ! त्वत्तः के ताराथी सुरुलन के अत्यंत उर्लन एवं इदं रत्नत्रयं के ए झान, दर्शन, चारित्र लक्षण रत्ननुत्रय, मयाप्तं के में संपादन कर्यु हतुंः परंतु ते जूरिजवत्रमेण के घणा जन्मने विषे श्रम के भ्रांति-तेणे करीने अने प्रमाद निशवशतः के मद प्रमुख प्रमाद अने पांच प्रकारनी प्रसिह जे निश-तेना महात्म्ये करी तद्गतं के ते उर गयुं एटले अंतर्धान पाम्यु. ए माटे हवे कस्यागतः पूत्करोमि के० ते गयुं एटले हवे कोना आगल पोकारूं ? ए तो तारी कृपाएज प्राप्त थाय तो थाय एवी आशा बे. ॥ ॥
॥गाथा ए मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ वैराग्य रंगः वैराग्यनो रंग । वादाय वाद करवाने अर्थे परवंचनाय बीजाने ठगवाने अर्थे विद्याध्ययनं विद्यानो अज्यास धर्मोपदेशः धर्मनो नपदेश । च-अने, वली जन रंजनाय लोकोने खुशी । मे मारो करवाने अर्थे
अनूत=थयो
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( १५) कियत केटलु
स्वं-पोतार्नु ब्रुवे कहुं
ईश-ह स्वामिन् ! हास्यकरं-हास्यकारक
वैराग्यरंगः परवंचनाय, धर्मोपदेशो जनरंजनाय; वादाय विद्याध्ययनं च मेऽनृत्, किय दुवे हास्यकरं स्वमीश ॥ ५॥
शब्दार्थः--वैराग्यनो रंग बीजाने उगवाने अथ थयो, धर्मनो उपदेश लोकोने खुशी करवाने अर्थे थयो, अने विद्यानो श्रन्यास वाद करवाने अर्थे थयो तो हे स्वामिन् ! मारुं हास्यकारक एवं (स्वरूप) हुं केटर्बु कहुं ॥ ए॥
व्याख्या:-हे इश के० हे स्वामिन ! हुं खंहास्यकरं कियब्रुवे के भारां हास्यकारक एवां कर्मने केटलां कहुं ? जो के सर्व कर्म कहवा माटे शक्य नथी, तथापि कांक कहुं छु. मे वैराग्य रंग: परवंचनायाभूत् के मारा वैराग्यनो जे रंग ते, परवंचनाय के अन्यना प्रतारण एटले उगवा माटे थयो; अने मे धर्मोपदेशः जन रंजनायभूत् के0 मे करेलु दानादिनुं जे कथन ते लोकोना रंजनने
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(१६) माटे थयु, अने मे विद्याध्ययनं के0 मारुं विद्यापठन, ते पण वादायाभूत् के परवादना जयने माटे थयुं ॥ ए॥
॥गाथा १० मीना बटा शब्दोना अर्थ ॥ परापवादेन पारकी निंदावमे; । पर बीजाने
पारका अवर्णवाद बोलवावडे अपाय अनर्थ मुख-म्होडं
विचिंतनेन विचारवे करीने सदोषं-पापवालु दोषयुक्त कृतं कर्यु नेत्रं आंखने
नविष्यामि थशे परस्त्रीजनवीक्षणेन परस्त्री जो- कथं केम; शुं
विनो-हे प्रभु! चेतः चित्त
अहं-हुँ; (महारु) परापवादेन मुखं सदोषं, नेत्रं परस्त्रीजनवीक्षणेन; चेतः परापायविचिन्तनेन, कृतं नविष्यामि कथं विनोऽहं ॥ १० ॥
शब्दार्थ:--पारकी निंदावमे में (मारं ) मों दोषयुक्त कर्यु, पारकी स्त्री जोवावमे मारी आंख
वावके
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( १७ ) सदोष करी, बीजाने अर्थ चिंतवावडे करी मारुं भन दोषवालुं कर्यु ( ए माटे ) हे प्रभु! मारुं शुं थशे ? ॥ १० ॥
व्याख्या : - हे विजो ! मया परापवादेन मुखं सदोषं कृतं के० में बीजाना द्वेषादिके करीने सत्य ने सत्यरूप दूषणनी जे उत्पत्ति, ते रूप अपवाद - तेणे करी पोतानुं मुख दोषयुक्त करें, तेमज पोतानां नेत्र, परस्त्रीजनवीन के० परनारीना वलोकनेक दोष सहित एवां कर्या; तेमज पोतानुं चित्त, परापाय विचिंतनेन के बीजाना जे अपाय के अनर्थ, तेना विचारे करीने दोष सहित कर्यु, ए माटे हे मनो, अहं कथं जविष्यामि के० एव पाप कर्माचरणे करी आगल मारी शी गती थशे ? एवो जावार्थ ॥ १० ॥
॥ गाथा ११ मीना बुटा शब्दांना अर्थ |
बिडं बितं विरूंब्यु; निघता प्रते
-
पमारूयुं.
यत् = जे स्मर = कामदेव
घस्मर नक्षण करनार
आर्ति-पीमा
दशा=अवस्था
वशात्-वशथी
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तत्-ते
स्वं-पोतार्नु स्वरूप
हिया लजाए विषयांधलेन-विषयोवमे अंध एवज थएला में
सर्वज्ञ हे सर्व ! प्रकाशितं प्रगट करेलु सर्व-बधुः सर्वे
स्वयमेव-पोताना मेलेज जवतः तमारी
वेरिस-तुं जाणे हे विमंबितं यत्स्मरघस्मरार्ति, दशावशात्स्वं विषयांधलेन; प्रकाशितं तन्मवतो ह्रियैव, सर्व सर्व स्वयमेव वेत्ति ॥११॥
. शब्दार्थः--विषयोवमे अंध थएला में नकण करनारः कामदेवनी पीमाना वशथी पोतानुं स्वरूप जे विमव्युं ते हे सर्वज्ञ ! में लगाए करीने सहितज तारी आगल प्रकाश्युं बे. (वधारे शुं कहुं) तुं पोतेज सर्व जाणे बे. ॥११॥
व्याख्या:-हे नाथ ! यत् के जे, विषयांधलेन के शद्धादिक विषये करी विवेकरूप नेत्रो जेणे निमीलन कयाँ ले एवो हूं तेणे-स्मरघस्मरातिदशावशात् स्मर के कामदेव-तेज कोइ एक
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(१)
घस्मर के जक्षण करनारो, तेनी जे प्रति के० पीमा - तेनी जे दशा के अवस्था, तेना स्वाधीनपणा माटे स्वं के० पोतानं स्वरूप विनंतिं के० निद्यता प्रत्ये पमायुं. ते हमणां हिया के० कथनरूप लगाए जवतः एव प्रकाशितं के० तनेज निश्वये करी प्रगट करेलं बे. एटले लका युक्त एवो जे हुँ, ते प्रत्ये अवलोकन करी तें मारां सर्व आचरण जाएयां बे एवो अर्य. जे कारण माठे हे सर्वज्ञ ! तुं सर्व जगत्ने स्वयमेव वेल्स के पोताना ज्ञाने करी जाणे बे. ॥१२॥
O
॥ गाया १२ मीना बुटा शब्दना अर्थः ॥
वृथा = फोकट निष्फल
कर्म = पाप कर्म
ध्वस्तः = अनादर कर्यो
अन्य मंत्र = बीजा मंत्रोवडे
रमेष्टिमंत्रः = नवकार मंत्र
कुशास्त्रवाक्यैः = कुशास्त्रनां वाक्योवमे
निहता = नाश पमामी; न सां
नली
यागमोक्तिः = सिवांनी वाणी कर्तु करवाने
देवरागी द्वेषी देव
संगाव = सोबतथी; सेवाथी अवांबि= में इहयुं
नाथ- हे नाथ !
मति = बुद्धि
चमः खसी जनुं ते; विपर्यास मे=मारो
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( ) ध्वस्तोऽन्यमंत्रैः परमेष्ठिमंत्रः, कुशास्त्रवाकैय निहतागमोक्तिः; कर्तुं वृथाकर्म कुदेवसंगाद वांनिहि नाथ मतिन्त्रमो मे ॥१॥
शब्दार्थः–में बोजा मंत्रोवमे नवकार मंत्रनो अनादर कयों, कुशास्त्रनां वाक्योवमे सिद्धांतनी वाणी न सांजली, कुदेवना संगथी में पापकर्म निष्फल करवाने इच्उयु. हे नाथ ! खरेखर मारे। बुझिनो विपर्यास थयो ॥ १२ ॥
___ व्याख्याः -हे नाथ ! मे हि मतिनमोऽनूत के खरेखर माहरों शो आ बुझिविपर्यास थयो ! ! तेज कहे . मया के हुँ जे तेणें-परमेष्ठिमंत्रः के परमपदने विषे रहे . माटे परमेष्ठी-तेनो जे नमस्काररूप नमो अरिहंताणं इत्यादिक नवपदात्मक मंत्र, ते अन्य मंत्रध्वस्तः के बीजा मंत्रोए आदररहित कर्यो. तेमज में आगमोक्तिः के आगमनी सिक्षांत वाणी, ते कुशास्त्र वाक्यैः के वात्स्यायनादि वाक्योए करीने, अथवा कुत्सित एवां जे शास्त्रोतेना वाक्ये करीने निहता के नाश पमामी एटले श्रवण करी नहि. एवो अर्थ. तेमज में कुदेव संगात् के हरिहरादिक कुत्सित
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देवोनी सेवनाए करीने कर्म वृथा कर्तुं के झानावरणीयादिक पापकर्म तुं अपाकरण करवा माटे अांति के इनु पुं. ॥ १२ ॥
॥ गाथा २३ मीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ विमुच्य-मुको देईने बोमोदईने | वदोज-स्तन दृग्लयगतं दृष्टिगोचर भूत | गलीरगंजीर . पावेला
नालीनाली; उंटी : नवंत-आपने . कटी के ध्याता-चितव्या; ध्यान कहुँ । तटीयाः हलतां शरीरनां अवमया में
यववाला यूहधिया-ढ बुध्विालाए सुदृशां-सुंदर दृष्टिवाली स्त्रीनना हृदंत-हदयमां
विलासाः विलासो हावनावकटादनां कटाद
नां सुख विमुच्य दृगलक्ष्यगतं नवंतं, ध्याता मया मूढधिया हृदंतः; कटादवकोजगन्नीर नानी, कटीतटीयाः सुदृशां विलासाः ॥ १३ ॥
___ शब्दार्थः-दृष्टिगोचरनूत आवेला थापने बोझी देईने में मूढ बुद्धिवालाए कटाक, स्तन, गंजोर
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(१५) नाजी, केम, श्रने ढलतां अवयववालास्त्रीउना विलास चिंतव्या ॥ १३॥ ____ व्याख्याः -हे जगदीस ! मुढधिया के जेनी बुद्धि मुढ ने एवो हुँ, तेणे दृग्लक्ष्यगतं के दृष्टि गोचर भूत एवो जवंत के चिं. तामणि सरखो जे तुं-तेने विमुच्य के परित्याग करीने हृदंतः के पोताना हृदयने विषे सुदृशां विलासाः के चंचलत्वे करी जेननी दृष्टि सुंदर दे एवी हरिणादि स्त्रीनना हावलावादिक वित्रमज, ध्याताः के चिंतन को. ते विलास केवा? तो के-कटादवदोज गनीर नाजी कटी तटीयाः के नेत्र कटाद, स्तन, गंजीर एवो नानी, अने कटी प्रदेश-इत्यादिक अवयवोए मोहनशील. चिंतामणि रत्न सरखो एवो जे तुं-तेनो त्याग करीने हुं पापमय विषयोने विषे आसक्त थयो. ॥ १३ ॥ ॥ गाथा १४ मीना बुटा शब्दोना अर्थ. ॥ लोलेवणा-चपल नेत्रवाली | य=जे स्त्रीननां
मानसे-मनमां; चित्तमा वक्रमों
रागलवः रागनो अंश; रातानिरीक्षणेन-निहालीने जो- शनो अंश वायी
विसमा लाग्यो चाट्यो .
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(१३) नम्नहि
अपि-पण शुद्ध सिद्धांत पवित्र आगम अगात-गयो (रूप)
तारक हे तारनार ! योध-समुश्
कारणं-कारण मध्ये-मां; विषे
कि=j धौतः धोयो
लोलेक्षणावक्रनिरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्नः॥ न शुक्षसिद्धांतपयोधिमध्ये, धौतोप्यगात्तारक कारणं किं॥१४॥
शब्दार्थः-चपल नेत्रवाली स्त्रीनां मों निहालीने जोवाथी मारा चित्तमा जे रागनो अंश चो व्यो ते हे तारनार ! पवित्र श्रागमरूपी समुअमां धोए बते पण न गयो तेनुं कारण शुं ? ॥ १४ ॥ ____ व्याख्याः-हे त्रिकाल वेदिन! मारा, मानसे के चित्तने विषे, लोलकणावत्र निरीक्षणेन के जेनां नेत्रो चंचळ ले एवी जे रमणी; तेनुं जे मुख, तेना अवलोकने करीने यः रागलव; के जे राताशनो अंश, विलन के विशेष करी संलग्न थयो; ते रागलव,
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(२४) तारक के हे संसार पार पापक ? शुक्ष सिद्धांत पयोधि मध्ये के निर्दोष जे सिांत के आगम, तेज कोश्क समु-तेना मध्य जागने विषे धौतोपि के कालन कर्यु बतां पण नागात् के नी. कली गयो नहि. तत्र किं कारणं के ते विषे कारण शुं हशे? जे हशे ते हुँ जाणतो नथी; परंतु.माहारी विषयोने विषे दृढासक्तताएज एनुं कारण हशे. एवं मने लागे जे ॥ १५ ॥ . . ॥ गाथा १५ मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ अंगं शरीर
स्फुरत्-देदीप्यमान
मन्ना-कांति चंग-मुंदर; सारं
प्रधान-मोटी, अधिकारीनी न-नथी
प्रभुता-मोटाई ऐश्वर्यता गण-समूह
चली गुणानां-गुणोनो
कापिकोईपण नम्नथी
तथापिः-तोयपण निर्मल-मलरहित शुद्ध अहंकार-अनिमान; गर्व कोपि-कोपण
कर्थित-परालव पामेलो; कलाविलासः कलानो विलास कदर्यना पामेलो कलानुं उद्दीपन । अहं हुं अंगं न चंगं न गणो गुणानां, न निर्मलः कोपि
नम्नथी
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(२५) कताविनाप्तः; स्फुरत्प्रना न (प्रधान) प्रनुता च कापि, तथाप्यहंकारकदर्थितोऽहं ॥२५॥
शब्दार्थः-माझं शरीर सुंदर नथी,तेमज शुरू गुणोनो समूह पण ( मारामां ) नयी, (तेमज) कोश पण कलानो विलास, अने कोई पण प्रकारनी देदो. प्यमान एवी कांति के प्रधाननी ऐश्वर्यता (मारामां) नथी तोपण हुं श्रहंकारे परानव पामेलो बुं ॥ १५ ॥ ___ व्याख्याः -हे जिनेश, मे अंग चंग न के मारुं शरीर सुंदर नथी, तेमज निर्मल के मलरहित एवा गुणानां गणो न के० विनय, औदार्य, गांजीय, धैर्य, स्थैर्य अने चातुर्य इत्यादिक गुणोनो समूह पण नथी. तेमज कोपि के कोपण कलाविलासः के कलानुं नद्दीपन थर्बु अने कापि केस कोइपण प्रकारनी स्फुरत्मधान प्रभुता के देदीप्यमान एवी जे राजाननी प्रसूता के0 चक्रवर्तिपणु अथवा देदीप्यमान एवं प्रधाननी के अधिकारी पुरु. पनी प्रभुता के ऐश्वर्यता ते पण नथी; तथापि हे प्रनो ! अहं अहंकार कथितः अस्मि के हुं अहंकारे करीने पराजय पामेलो एवो छ अथवा पागंतरे स्फुरत्यत्रा, न के० देदिप्यमान कांति पण नथी. ॥ १५ ॥
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( २६ )
|| गाथा १६ मीना बुटा शब्दांना अर्थ. ॥
त्र्यायुः =प्रायुष्य
गलति=नाश पामे बे घटं जाय
आशु = जलदीथी, शीघ्र
न=नथी
पापबुद्धिः पापना परिणाम
गतं =नाश पामी
वयः = जुवानो नो=नहि
विषया जिलाषः = विषयोनी इच्छा
Lan
यत्नः=प्रादर; प्रयत्न
च-वली
नैषज्यविधौ नसड करवामां
न=नहि
धर्मे धर्ममां
स्वामिन हे स्वामि !
महा = प्रबल; मोटी मोह विडंबना = मोहनी कदर्थना
म=मारी
प्रायुर्गलत्याशु न पापबुद्धि, र्गतं वयो नो विषयाभिलाषः; यत्नश्च नैषज्यविधौ न धर्मे, स्वामिन्मदा मोहविम्बनामे ॥ १६ ॥
शब्दार्थः — दे स्वामिन् ! मारो मोटो मोहन कदर्थना ते केटल | कदेवी ? मारुं श्रायुष्य जलदीथी घटतुं जाय बे पण पापना परिणाम नथी नाश
-
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(१७) पामता, मारी जुवानी जती रही पण विषयनी श्र. निलाषा जती नथी, उसम करवा में यत्न कयों पण धर्मने विषे में श्रादर न कर्यो ।। १६ ॥
हे स्वामिन् ! मे के मारी महामोह विम्बना के प्रबल जे मोह तेनी जे विमंबना के कदर्थना ते केटली कहेवी ? ते केवी? तोके मारं आयुः के आयुष्य, ते आशु गलति के शीघ्र नाश पामे के; परंतु पापबुधिन के जे पापपरिणाम ते नाश पामता नथी. तेमज मारुं वयः गतं के तारुण्य लक्षण जे वय, ते अतिक्रांत थयुं, परंतु विषयानिलाषः न, के शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्शरूप जे विषय, तेननो अभिलाषः के इहा, ते हजी पण नाश पामी नथी. अने मारो यत्नः के आदर, ते नैषज्यविधौ केशरीर निरोगी होवू, एतदर्थे औषधादिकोना विधान विषे थयो। धर्मे न के सुकृतने विषे थयो नहि ॥ १६ ॥
॥ गाथा १७ मीना बुटा शब्दाना अर्थ ॥ नम्नथी
पापं पाप आत्मा-जीव चेतन
मया में न नथी
विटानां नास्तिकोनी; उगलोपुण्यं-पुण्य
कोनी अव अवतार
कटु-कडवी; कर्कश ..
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बते
(७) गी: वाणी
अर्के सूर्य (बते) अपि पण
केवलार्के केवल ज्ञानरूप सूर्यश्यं एवी अधारि-धारणा करी परिस्फुटे अति प्रगट कर्णे कानमा
सति-उतां अधारिकणे सांजली
अपि-पण त्वयि तुंबते
देव हे देव ! केवल केवल
धिक् धिक्कार हो मां-मने नात्मा न पुण्यं न नवो न पापं, मया विटानां कटुगीरपीयं, अधारि कर्णे त्वयि केवलार्के, परिस्फुटे सत्यपि देव धिङ्मां ॥१७॥ ____ शब्दार्थः-तुं केवलज्ञानरूप सूश्रिति प्रगट बतां पण में नास्तिकोनो थावो वाग) सांजवी के
आत्मा नथी, पुण्य नथी, नव नथी, पाप नथी तो हे देव ! मने धिक्कार हो. ॥ १७ ॥
व्याख्याः-है जगवन् ! केवलार्के त्वयि के केवलझानना प्रकाशक केवल सूर्यज, एवो तुं, परिस्फुटे सत्यपि के अति प्रगद
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__( ए) पण, मया के हुँ जे-तेणे विटानां के नास्तिकादि विटपुरुषोनी, आत्मा न पुण्यं न नवो न पापं न के जीव नथी; पुण्य नथी, अवतार नथी, उष्कृत नथी; इयंकटुगीरपि के एवी कर्कश वाणीज कणे अधारि के कणेने विवे धारण करी. एटले श्रवण करी. ए माटे हे देव के हे केवलिपते ! मां धिक के गुण अने अवगुण एउनो विवेक न करनारो एवोजे हुं-तेने धिक्कार हो. १७॥
॥ गाथा १७ मीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ न-नहीं
लब्ध्वा-पामीन. देवपूजा-प्रभुपूजा
अपि-पण न-नही
मानुष्यं मनुष्यपणुं चवली
दं-आ पात्रपूजा-सुपात्रे दान समस्तं बधुं नम्नहि
कृतं कर्य श्राधर्म-श्रावकधर्म
मया में च-अने
अरण्य जंगल न-नहीं
विलाप रुदन साधुधर्मः साधु महाराजनो धर्म | तुल्यं सरखं
न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राध
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मंश्च न साधुधर्मः, लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयाऽरण्यविलापतुल्यं ॥ १७ ॥ ___शब्दार्थः-में मनुष्यपणुं पामीने प्रनुपूजा न करी, सुपात्रे दान न दोधुं, श्रावक धर्मने न पायो तेमज साधु धर्म न पायो तेथी में आ बधो म. नुष्य जन्न जंगलमां विलाप करवा सरखो कर्यो फोकट गुमाव्योः ॥ हुए। ____ व्याख्याः -हे परमेष्टित, मया के हुँ जे-तेणे मानुष्यं लब्ध्वापि के पूजादिक कृत्यो करवा माटे योग्य एवा मनुष्यपणाने पामीने पण देवपूजा न कृता के अरिहंत देवनी पूजा करी नहीं; अने पात्रपूजा न कृता के साधुने जे दान देवू ते पात्रपूजा. ते पण करी नहि. नक्तंच ॥ अव्र पानं तथा वस्त्रमालयं शयनासन। शुश्रूषा वंदनं तुष्टिः, पूजा नवविधा गुरोः ॥१॥ तेमज में श्राधमः न के सम्यक्त पूर्वक द्वादश व्रत लदण धर्म, ते पण स्वीकार्यों नाहि. अने साधुधर्मः न के साधुनो जे पंच महाव्रत लक्षण धर्म, ते पण स्वीकार्यों नहि. ए माटे इदं स्मस्तं के ए अर्हतपूजा न करवी इत्यादिक सर्व, अरण्य विलापतुल्यं कृतं के अरण्यने विषे जे विलाप एटले रुदन तेना सरखं कर्यु. एटले मने मनुष्यपणुं
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(३१) माप्त थयुं बतां में सत्कर्म कयु नहि ए व्यर्थ थयु. नक्तं च ॥ अरएयरुदितं कृतं शवशरीर मुशर्तितं श्वपुलम वनामितं बधिर कर्ण जापः कृतः स्यले कमलरोपणं मुचिर सूपरे वर्षणं यदंध मुखमंझनं यद बुधे जने जाषितं ॥ इति ॥ १७ ॥
॥ गाथा १ए मीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ चक्रे करी
जैनधर्मे जैन धर्ममा मया में
स्फुट-प्रगट असत् अबता
शर्मदे मुख देनारामां अपि पण
अपि-पण कामधेनु-कामऽघा गाय जिनेश हे केवलिपति ! कल्प-कल्पद
मे मारी चिंतामणिषु चिंतामणीमां पश्य-जून स्पृहा-श्वारूप
विम्ढ विशेष मुर्ख आत्तिः पीमा
जाव-स्थिति; हालत न नहीं
चक्रे मया ऽसत्स्वपि कामधेनु, कल्पा चिंतामणिषु स्पृहाति; न जैनधर्म स्फुटशर्मदेऽपि, जिनेश मे पश्य विमूढनावं ॥ १० ॥
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(३ शब्दार्थः-में अवता एवा कामधेनु, कल्पवृक अने चिंतामणि रत्ननो श्वारूर पीमा उपजावो पण प्रगट सुख प्रापनार जैनधर्मने विषे (धर्मध्याननी इला) न कर, माटे हे जिनेश ! मा विशेष मुर्ख हालत तो जून ॥ १५॥ ___ व्याख्याः -हे जिनेश के हे केवलिपते ! मया के हुँ जे तेणे अतत्स्वपि के अविद्यमान एवां पण, कामधेनु, कल्ला चिंतामणि के मनोरथ पूर्ण करनारी एवी कामधेनु, कल्पना पूर्ण करनारूं कल्पद, अने चिंतित फल देनाएं चिंतामणि रत्न, एमने विषे स्पृहार्तिः के इलारूप चिंता, निश्चय के प्राप्त थवानो चक्रे के कर्यो; परंतु स्फुटशर्मदेपि के स्पष्टपणे करीने सुख देनारा पण, जैनधर्मे के जिनमोक्त एवा धर्मने विषे धर्माकरणरूप चिंता करी नहि. ते कारण माटे हे जिनेश! मे विमूढनावं के मारुं विशेष करीने जे मंदपणुं, ते प्रत्ये-पश्य के अवलोकन कर. ॥१॥
॥ गाथा २० मीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ सद्भोगलीला सारा लोगनी क्रीमा रोगकीला-रोगरूप लोढाना खीला न नहि
धनागमः धननु आवq, धन मेच-बली; अने . . . लवकुं
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(३३) नो नहीं
नरकस्य नरकनी. निधनागमः मोत आव चित्ते-चित्तमां च-बली
व्यचिंति-विचारी दारा स्त्री
नित्यं हमेशां न नहीं
मयका में हुं जे तेणे कारा-बेमी: ख
। अधमेन-नीच एवा सन्नोगलीला न च रोगकीला, धनागमो नो निधनागमश्च; दारा न कारा नरकस्य चित्ते, व्यचिंति नित्यं मयका ऽधमेन ॥२०॥
शब्दार्थः-नीच एवा में हमेशां मनने विधे सारा नोगनी क्रीमानो विचार कर्यों पण तेथी थता रोगरूप खीलानो विचार न कर्यो, धन मेलवानो विचार कर्यो, पण मोंत पावशे एवो विचार न कर्यो, स्त्रीनो विचार कयों पण नरकना फुःखनो विचार न को. ॥२०॥
व्याख्याः -हे पुरुषोत्तम ! अधमेन के अधम एवो मयका के हुँ जे-तणे, नित्यं के निरंतर, सद्भोग लीला के उत्तम प्रकारना लोगोनी क्रीमा ते चित्ते के चित्तने विषे व्यचिति के
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( ३४ )
चिंतन करी; परंतु रोगकीला न च के० रोगरूप लोहना खीला ते चितन कर्या नहींज; तेमज धनागमः के० घननी प्राप्ति चिंतन करी, परंतु निधनागमो नो के० मरण प्राप्ति चिंतन करी नहि; तेमज में दाराः के० स्त्रीनं चिंतन कर्यु, परंतु नरकस्य कारा के० नरक संबंधी कारागृहनुं चितंन कर्यु नहि ॥ २० ॥
|| गाथा २१ मीना बुटा शब्दना अर्थः ॥
॥
स्थितं=रह्यो न नहीं
साधोः = साधुना हृदि - हृदयमां; मनयां
साधु सारां; शुज वृत्तात् = वृत्तथी; आचारखमे परोपकारात् = परोपकारवमे
न=नहि
कृतं कर्यो न=नहि
तीर्थोदरादि = जीर्णोद्धार वि
गेरे
कृत्यं = काम मया=में
मुधा = व्यर्थः फोकट प्रहारितं = गुमायो
एव=ज
जन्म-जन्म; जींदगी
यशः-जश
प्रतिं = मेलव्यो.
च = वली; ने
स्थितं न साधोर्हदि साधुवृत्तात्, परोपकारान्न यशोऽतिं च; कृतं न तीर्थोद्धरणादि
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AAN
(३५) कृत्यं मया सुधा हारितमेव जन्नः ॥२१॥
शब्दार्थः-सारां वृत ( पालवा ) वमे ढुं सा. धुना हृदयमा रह्यो नहीं, परोपकारथी में यश पेदा 'कयों नहीं, जीर्णोधारादि ( सारां) काम न कर्या, में तो व्यर्थज जन्म गमाव्यो ॥१॥ ___ व्याख्याः-हे जगत्मनो ! में साधुवृत्तात् फे उत्तम प्रकारना
आचारे करीने साधो हदि न स्थितं के साधुना हृदयने विषे रहेगण कयु नहि एटले जे सदाचार युक्त होय, ते साधुने प्रियं थाय जे तेवो हूं थयो नहि. एवो लावार्थ-तेमज में परोपकारान्न यशोजित के परोपकारे करीने प्रख्याति रूप यश संपादन कर्यो नहि तेमन में तीर्थो शरणादि कृत्यं न कृतं के पतन पामेलां जिनमंदिरोन जे पुनः प्रतिष्टान रूप नहरण ते जेमां आदि एयु सत्कार्य कयु नहि ते कारण माटे में मारो जन्म, मुधैव अहारि के व्यर्थज गुमाव्यो ॥ ११ ॥
॥ गाथा १२ मीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ वैराग्यरंग-राग्यनी बार.ना ! गुरूदितेषु-गुरूए कहेला उपन= (थई)
देश (सांजलवा ) मां न-अहि
। उर्जनानां उर्जनोना
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वचनेषु-वचनो (सांजली र. | अपि पण हेवा) मां
देव हे देव ! शांतिः उपशम
तार्यः-तरवा योग्य न नहि
कथंकारं कोण प्रकारे करीने अध्यात्मलेश अध्यात्मनोलव अयं आ मम-मारो
जवाब्धिःजवसमुश् का कोई
- वैराग्यरंगो न गुरूदितेषु, न जनानां वचनेषु शांतिः; नाध्यात्मलेशो मम कोऽपि देव, तायः कथं कारमय भवाब्धिः ॥२२॥
“शब्दार्थः-गुरुए कहेला उपदेशमा मने वैराग्यनी वासना न थई, पुर्जनानां वचनो सानली र. हेवामां नपशम थयो नहीं, मने काई अध्यात्मनो लव पण प्राप्त थयो नहीं तो हे देव ! ९ कोण प्र. कारे करीने श्रा नवसमुह तरवा योग्य बं. ॥ २२ ॥ - ___व्याख्याः -हे देव, मया के हुं अयं लवाब्धि के0 आ जवसमुह, कथंकारं तार्यः के कोण प्रकारे करीने तरवाने माटे योग्य बं? जे पुण्य कर्म विना, तरवा माटे अशक्य, ते पुण्य कर्म
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( ३७ )
तो में संपादन कर्यु नहि तेज बतानुं लुं; मने गुरुदितेषु के० गुरुए जापण करेला व्याख्यान श्रवण करवा विषे वैराग्यरंगः के० वैरागनी वासना नाजनि के उत्पन्न थइ नहि. यक्तं ॥ धर्मांख्याने श्मशाने च रोगिणां यामतिर्भवेत् ॥ यदि सा निश्चलाबुद्धिः को न मुच्येत् बंधनात् ॥ १ ॥ तेमज दुर्जनानां के० सनोना, वचनेषु के० वाक्याने विषे, शांतिर्नाभूत के० उपशम प्राप्त थयो न हि तेमज मम कोपि अध्यात्मलेशः न के० मने कोइप आत्मबुदिए पठनपाठनादिक अष्टांग योगनो लव पण प्राप्त थयो नहि ॥ २२ ॥
॥ गाया २३ मीना बुटा शब्दना अर्थ |
पूर्वजवे पूर्व जन्ममां पाउल गरला जवोमां अकारि-कर्यु
मयान्
न-नहि
पुण्यं सुकृत आगामि-यागत थनारा जन्मनि-जन्मोमां अपि =ए
नो नहीं
करिष्ये करीश यदि = जो
ईदृशः =वा प्रकारनो; घ्यावा
गुणवालो
=
अहं=
मम=मारा
तेन ते कारण माटे
नष्टा = नाश पाम्या
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P
-RIES
(३७) नूत-गयेलो
जवत्रयी-नवनुंत्रिक; त्रालय नद्भवत्-चालतो
इश-हे इश; हे प्रभु! नावि-आवतो
पूर्वे नवे ऽकारि मया न पुण्य, मागामि जन्मन्यपि नो करिष्ये; यदीदृशो मम तेन नष्टा, जूतोन्नयनावि नवत्रयीश ॥ १३ ॥ ____ शब्दार्थः-- पूर्व जन्ममां में सुकृत न कर्यु,
आगल थनारा जन्ममां पण नहीं करीश; जो आवा प्रकारनो हुं हुं तो हे प्रजु ! ते कारण माटे मारा त्रण नव, गयेलो चालतो अने श्रावतो नाश पाम्या ॥२३॥
व्याख्याः -हे नेताः मया पूर्वेलवे पुण्यं नाकारि के0 में पूर्व जन्मने विषे सुकृत संपादन कर्यु नहि. ए केम समजवामां आव्युं ? तो के तेवू सौख्य प्राप्त थयुं नथी ए उपरथी समजाय जे. तेमज आगामिजन्मन्यपि के आगल प्राप्त थनारा जन्मने विषे पण, नोकरिष्ये के पुख्य संपादन करनार नथी. ए केम समजवामां आव्युं ? तो के, वर्तमान जन्मना अनुमाने करीने. वर्तमान जन्मने विषे तो दत्तं न दानं इत्यादिके करीने पुण्य संपादन कर्यु नहि, ए स्पष्टज प्रतिपादन कयु है. आ जन्मन (वर्ष पुण्य कयु नाह,
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(३ए ) तेमज आगल पण करनार नथी; एवं सिह थाय जे. पुण्येन . र्धते पुण्यं पापं पापेन बर्धत इति वचनात् ॥ यदीडशोहं के जे कारण माटे, पुण्योपार्जन विवर्जित एवो हुँ छु; तेन के ते कारणे हे इश, मम नूतोद्लबद्लावि नवत्रयी नष्टा के मारा पूर्वे थएला, वर्तमान कालना अने आगल थनारा एवा जन्मनी त्रयी नाश पामी एटले सुकृत संपादन विना निरर्थक थइ. एवो जावार्थ ॥ ३॥
॥ गाथा २४ मीना बुटा शब्दोना अर्थ. ॥ किंवा शुं वारूं
यस्मात्-जे कारण माटे मुधा-व्ययः फोगट
त्रिजगत्-त्रण लोक अहं हुं
स्वरूप-लक्षण बहुधा घणा प्रकारे निरूपक: निरूपण करनारो सुधाभुक्-देवोने
त्वं-तुं . . ज्ज़्य-पूजवा योग्य कियत-शा हिसावन कोण त्वदग्रे-तारी आगल • गणतीमां चरितं-चरित्रने
एतत्-ए; आ स्वकीयं-मारा
अत्र-अहिंयां जल्पामि-कहुं; कथन करुं ।
किंवा मुधाऽहं बहुधा सुधाजुक्, पूज्य
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( 0 ) त्वदने चरितं स्वकीयं; जल्पामि यस्मात् त्रिजगत्स्वरूप निरूपकस्त्वं कियदेतदत्र ॥२४॥ ___शब्दार्थ:-हे देवताए पूज्य ! तारी श्रागल मारं चरित्र घणा प्रकारे फोगट शुं कहुं जे कारण माटे तुं त्रण लोकना स्वरूपनो निरूपण करनारो ने तेने ए शी गणतीमा छे ! ॥ २४ ॥
व्याख्याहे सुधाभुक् पूज्य के अमृतने नदण करनारा जे देवो-तेनए पूजा करवाने योग्य एवा हे प्रनो! त्वदने के सारा अग्रजागने विवे स्वीकीयं के मारा चरितं के चरित्रने मुवा केप व्यर्थ, बहुधा के नाना प्रकारे करी, अहं किंवा जल्यामि के हुं शुं वारू कयन करूं ? यस्मात् के जे कारण माटे, वं त्रिजगत् स्वरूप निरूपं के तुं त्रैलोक्यना लक्षणोनुं निरुपण करनारो डे, ते कारण माटे अत्र कियदेतन् के तारे विषे ए मारूं चरित्र कोण गणतीमां ? एटले त्रिभुवन जनोनुं स्वरूप जाणनारो तुं , ए माटे मारी पण सर्व स्थिति तने विदितन ले. ॥॥
॥ गाथा २५ मीना बुटा शब्दाना अर्थ ॥ दीनोशारदीनोनो नशार क- । धुरंधरः तत्पर रवा माटे
। त्वत्-ताराथी
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अपरः = बीजो नास्ते= नथी
मद्= माराथी
अन्य= बीजो
( ४१ )
कृपापात्रं = कृपा करवा योग्य
न=नथी
अत्रजने= लोकमां
जिनेश्वर = हे केवलीश
तथापि = तोपण
एतां = प्रा ( लोकनी )
न=नहीं
न=नहीं
इदं =
एव =ज
केवलं=फक्त
अहो=अरे सोधिरत्नं-उत्तम वोधि रत्न
सुंदर सम्यक्त्व रत्न
शिव= मोक्ष
श्री = लक्ष्मी रत्नाकर = तमुष
मंग वैकनिलयः = मंगलना एक
याचे =नाएं लुं
श्रियं = संपत्ति; दोलत किंतु = पण अर्दन=हे जगवन
दीनोधार धुरंधर स्त्वदपरो नास्ते मदन्यः कृपा, पात्रंनात्र जने जिनेश्वर तथाप्येतां न याचे श्रियं; किंत्वर्हन्निदमेव केवलमहो ससद्बोधिरत्नं शिव, श्री रत्नाकर मंगलैकनि
स्थान
श्रेयस्करं = कल्याणकारी प्रार्थये = मागुं कुं; याचुं हुं
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(४५) लय श्रेयस्करं प्रार्थये ॥२५॥
शब्दार्थः-हे केवलीश ! तारा विना बीजो कोई दीनोनो नद्धार करवाने तत्पर नथी अने आलोकने विषे माराथी बीजो कृपापात्र नथी, तोपण आ (लोकनी) संपत्ति हुँ मागतो नथी पण हे नगवन् ! हे मोदलक्ष्मीना समुझ ! हे मंगलना एक स्थान ! ए कल्याणकारक नत्तम बोधि रत्न, तेनीज केवल हुं प्रार्थना करूंबुं ॥ २५ ॥ .
व्याख्या:-हे जिनेश्वर के हे केवलीश ! त्वदपरः के तारा विना बोजो पुरुष दीनोशार धुरंधरः के दीनोनो नधार करवा माटे तत्पर एवो नास्ते के नथी. अने अत्रजने के आ लोकने विषे मदन्यः के माराथी बीजो पुरुष कृपापात्रं नास्ते के कृपार्नु स्थान नथी. अर्थात् कृपा करवाने अत्यंत योग्य एवं स्थान ते माराथी बीजु कोइ नथी. जो एवं ने तथापि एतां श्रियं न याचे के हाथी, घोमा कोशादिक सर्व जन मध्ये प्रसि जे ए संपत्ति, ते मलवा माटे हुं प्रार्थना करतो नथी. किंतु के शुं तो हे अर्हन के हे जगवन् ! हे शिवश्रीरत्नाकर के दे मोद सदमीना समुश्! ह मंगलैकनिलय हे बरैक मंदिर ! इदं श्रेयस्कर के ए कल्याण
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(४३) कारक एवं, सबोधिरत्नं के उत्तम प्रकारना जिनधर्म प्राप्ति माटे जे चिंतामणी सर रत्न, तेनीज केवल हुँ निश्चये करी प्रार्थना करूंछ. आ श्लोक मध्ये स्तुति करनारे मनुने शिव श्री रत्नाकर एवं संबोधन आप्यु, तेमांज पोतानुं नाम श्री रत्नाकरसूरि एवं सूचवलंबे. ॥ २५॥
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॥श्रीजिनप्रनसूरि कृत आत्मनिंदा अष्टकम्।।
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॥ गाथा १ लीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ श्रुत्वा सांजलीने । बहुविध-घणा प्रकारना श्रद्धाय श्रद्धा करीने तपसा सपवमे सम्यक् बरोबर रीते शोषयित्वा-सुकावीने शुनगुरुवचनं सारा गुरुर्नु वचन | शरीरं शरीरने वेश्म घर
धर्मध्यानाय धर्मध्यानने माटे वासं बास रहेवास
यावत् जेटलामां निरस्य त्याग करीने प्रनवति-थाय प्राव्रज्य-दीदा लेने
समय: वखत अथो-वली
तावत्-तेटलामां पठित्वा जणीने
आकस्मिकीनचिंती
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(४४) इयं आ
विषमा वसमी; आकरी माता आवी पसी
हा अरे मोहस्य मोहनी
हता-हणाया धाटी धाम
कुत्र-क्यां तमित विजली
यामः अमे जईए श्व-पेठे
श्रुत्वा श्राय सम्यक् शुनगुरुवचनं वेश्मवासं निरस्य, प्रव्रज्यायो पठित्वा बदविधतपसा शोषयित्वा शरीरम् ; धर्मध्यानाय यावत्प्रनवति समयस्तावदाकस्मिकीयं, प्राप्त मोहस्य धाटी तमिदिव विषमा हा हताः कुत्र यामः ॥१॥
शब्दार्थः-शुन गुरुनु वचन सांनत्री तेनी सम्यक प्रकारे श्रद्धा करोने गृहवास बोमी देने, दिदा ले जणी, घणा प्रकारना तपवमे शरीरने सुकावी, जेवो धर्मध्यान माटे समय आव्यो तेटला.
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(४५) मां बिजलीनी पेठे वसमा नचिंति था मोहनी धाम श्रावी त्यारे (जय लाग्यो के) अरेरे मरी गया थमे क्यां जश्ए ॥१॥ ॥ गाथा २ जीना बुटा शब्दोना अर्थ. ॥ एकेन एकवडे
रक्षितुम् रहाण करवाने अपि पण
हत्वा-हणीने महाव्रतेन महाव्रतबके
तानि ते यतिनः यतिने, साधूजीतुं अखिलानिबधा खंमेन खंमन करवात्रो उष्टमनस: 5ष्ट मनवाला जग्नेन जागवावमे
वर्तामहे वर्तिए डीए. वा अथवा त्यां जुर्गतिमां
वयं अमे पततः पमतो
तेषां तेमनो स: ते
दमपदं शिदा अपि-पण
विश्यति थशे जगवान-लगवान
कियत्-शी; केटली स्टे-समर्थ थाय ने
जानाति जाणे ले स्वयं-पोते
| केवली केवली जगवान एकेनापि महाव्रतेन यतिनः खमेन नग्मे
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( ४६ )
नवा दुर्गत्यां पततो न सोऽपि जगवानीष्टे स्वयं रक्षितुम् ; हत्वा तान्यखिलानि ष्टमनसो वर्तामदे ये वयं तेषां दंमपदं जविष्यति कियजानाति तत्केवली ॥ २ ॥ शब्दार्थ:: -- एक पण महाव्रत खंगीत थवाथी अथवा जागवाथी डूर्गतिनां पकता एवा यतिने बचावत्राने भगवान पोते पण समर्थ यता नयी तो ते बधांने हणीने श्रमे दुष्ट मनवाला थया तेमनो केटलो म यशे ते केवली भगवान जाये ॥ २ ॥ || गाथा ३ जीना बुटा शब्दना अर्थ ॥
कटयां-केरुमां
चोलपटं - चोलपटो
तनौ-शरीर उपर
सितपदं धोली चादर कत्वा =करीने शिरोलंचनं-मांथानो लोच स्कंधे-खने कंबकिां-कामनीने
रजोहरणकं रजोहरण; नधो निक्किप्य राखीने
कक्षांतरे - काखमां; वगतमां
वक्के मोंढे
वस्त्रं-मुहपति प्रथ:-बली विधाय करीने; राखीने ददतः = च्यापतो
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(४७) श्री मंगलकारी
कृते-माटे; अर्थे धर्मलान-धर्मलालरूप विना अमे जाणीए बोध आशिर्ष आशिष
गति गति बेषामबरिण: वेषनो आडंबर न नहीं राखनार
यात्मनः पोतानी स्वजीवन-पोतानी आजीकिाना
कट्यां चोलपटं तनौ सितपटं कृत्वा शिरो ढुंचनं, स्कंधे कंबलिकां रजोदरणकं निदिप्य कदांतरे; वके वस्त्रायो विधाय ददतः श्रीधर्मलानाशिषं, वेषामंबरिणः स्वजीवन कृते विद्मो गतिं नात्मनः ॥ ३॥
शब्दार्थ:- चोलपटो, शरीरे धोलो उत्तर पटो ( चादर) उढो, माथे लोच करावी, खने का. मल मुकी, बगलमा ओघो तथा मोंढे मुहमति राखी, धर्मशाननी कदवाणकार आशिष देता, पोतानी आजिविका चलाववा माटे श्रावो वेषनो श्राबर
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( 4 ) राखता, एवा श्रमारी शी गति थशे! ते अमे जापता नथी ॥३॥
॥ गाथा ४ थीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ निदा-निख, याचना. सकल मनोयोगनी नित्ति पुस्तक चोपडी; पोथी
तथा तमज वस्त्र कपड़े
कणं-पलवार पात्र-पा
अपि-पण वसति रहेवानुं स्थान प्रोज्य त्याग करीने भावार-हवा, वस्त्र
त्रमाद-प्रमाद, आलस लुब्धा=(मेलववामां) लोनी द्विषं देषने यथा जेम
स्वार्थाय आत्म साधन माटे नित्यं रोज
प्रयतामहे अमे यत्न करीए बीए मुग्धजन-लोला माणसने यदि जो प्रतारणकृते-ठगवा माटे तदा त्यारे कष्टेन कष्टवके
सर्वार्थ सिहि सर्व अर्यनीसिदि खिद्यामहे वेद पामीए बीए जवे-होय आत्मारामतया आत्मारामपणे
निदा पुस्तक वस्त्र पात्र वसति प्रावार
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( ए) लुब्धा यथा, नित्यं मुग्धजनप्रतारण कृते कष्टेन खिद्यामहे; आत्मारामतया तथा दणमपि प्रोज्ज्य प्रमादधिषं, स्वार्थाय प्रयतामहे यदि तदा सर्वार्थ सिदिवेत् ॥४॥ . ___शब्दार्थः-निका, पुस्तक, चोलपट, पाठे, रहेवानुं मकान अने नत्तरपट मेलवामां लोनी एवा अमे, जेम नोला माणसनुं उगावq श्राय तेम नित्य आचरण करतां कष्टवझे खेद पामीए बीए (पण) मात्मारामपणे कणमात्र पण प्रमाद रूपी वेरीनों त्याग करोने यात्म साधन अर्थे जो श्रमे प्रयत्न कर्यो होततो ते वखत अमारा सर्व अर्थनी सिद्धि थात ॥४॥
॥गाथा ५ मीना बुटा शब्दोना अर्थ॥ पाखंमानि पाखंमो | ग्रंथा-ग्रंथो पुस्तको. अज्ञान असमज सहस्रशः हजारोगमे | भृशं घणा : वशात्वशथी जगृहिरे-गृहण क- | पेठीरे-नणाया तपांसि-तप | लोललोन
| बहुधा-घणाप्रकारना
रायां
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मूढः मुर्ख (अमार:- | कथंचन कोइप्रकारे विनाश लाश बसे)
अपि-पण वली । संनत्र मुखानि=संचिरं-लांबा व वत गुरूनिःगुरुन (वमे) जवे ते काम विगेरे सूधी . . . भूत्वा थईने
अद्यापि-हजु सुधी | मुदो हरख तेपिरे–तपाया
नो-नहीं नेजिरेपाम्या कापि-कोई कोई कर्मक्लेश-कर्मरूप क्ले- लेनिरेमात थयां ठेकाणे ..
शनो पाखंमानि सहस्रशो जगृहिरे ग्रंथानुशं पेठिरे, लोनाज्ञानवशात्तपांसि बहुधा मुटैश्चिरं तेपिरे; वापि क्वापि कचनापि गुरुनित्वा मुदोनेजिरे, कर्मक्वेशविनाश संनव मुखान्ययापि नो लेनिरे॥५॥ __ शब्दार्थः-हजारो पाखंम गृहण करायां, घणा ग्रंथो जगाया, लोन थने अज्ञानना वशयी घणा प्रकारना तप लांबा वखत सुधी मुर्खपणे तपाया कोई कोई ठेकाणे तो गुरू थई कोई कोई प्रकारे हः रखने पाम्या परंतु कर्मरूप क्लेशनो नाश जेनाथ) संचवे तेवां काम विगेरे इजु सुधी प्राप्त थयां नहि.५
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॥ गाया ६ ठीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ क=Y
चरम जेल्ला खड्गधारा तरवारनी नाव-यश
गुणस्थानक:-गुण- धार जेवा नारकः नारकी
गणावालो . तपस्या तपस्या अहं हूं
कर्मदोषात् कर्म दो- स्वाध्यायः सजायकिंशु
पथी
ध्यान, जणबुंगणवू नतअथवा
| चरम गुणस्थानक= कर्णशूचि कानमां बहुलवीबहु नव करनारो
मिथ्यात्व गुणग- शूल उरलव्यः उरलवी
णावालो यम्=जम
वन्हिज्याला अग्निनी श्व-पठे ननव्या अनव्य किंवा अथवा वली
काल
विषमः वसमो, मु. अहं हुं
श्व-पेठे कृष्णापती कृष्णा- | शिदावतंशिदा व्रत संयमः संजम चारित्र पक्षी
अपि-पण यद-जे . किमु अथवा तो विषवत् केर जेवा विनाति लागेठे
किं नावी नारकोऽहं किमुत बहुलवीरजव्यो ननव्यः, किंवाहं कृष्णपक्षी किमु चरम गुणस्थानकः कर्भदोषात् ; वन्हिज्वानेव शि. देव्रतमपि विषवत् खगधारा तपस्या, स्वा
स्केल
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(५२) ध्यायः कणशूची यम इव विषमः संयमो यबिनाति ॥६॥
शब्दार्थः-कर्म दोषथी शुं हुं ते नारकी थइश, अथवा हुं शुं बहु नव करनारो थश्श, पुरनवी के अजव्य थश्श, अथवा तो हुँ शुं कृष्णपदी दूं अथवा हुं शुं बेला (मिथ्यात्व ) गुणगणावालो बुं शिक्षाबत पण श्रमिनी ज्वालानी पेठे फेर जेवां (लागे ठे), तपस्या तरवारनी धार जेवी, सज्जाय ध्यानतो कानमां शूल जेवू, संजम तो जम जेवू वस मुं
लागे बे. (माटे ढुं ते कर जातीनो जीव हश्श.) ६ • ॥गाथा मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ वस्त्रं वस्त्र, लुगां उप खावा,आहार शिष्य शिष्य पात्रं पात्र शय्या पाट विगेरे च अने नपाश्रयं-अपाशरो शय्या
शिदाम् जणतर । वविध वणाप्रकारना पुस्तक पुस्तक
अपि पण जैक्षं निदामांलावेलु नपकरणं साधन ग्रहीमः अमे लइए चतुर्धा-चार प्रकारचं (रुमाल विगेरे) । बीए
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परकीयमेव पारकुंज । वयं-अमे । तपसा-तपत्रके सुतराम अतिशय यास्यामः जश्शुं, तेषां तेमनो आजन्म-दिदारूप पामीशुं हहा-अरेरे
जन्मथी मांडीने कथं केवी रीते निष्क्रयम्-बदलो वृक्षा घरमा, मोटा। ईदृशेन आवा
वस्त्रं पात्र मुपाश्रयं बहुविधं नैदं चतुझुषधं, शय्या पुस्तक पुस्तकोपकरणं शिष्यं च शिदामपि॥ गृहीमः परकीयमेव सुतरामा जन्म रक्षा वयं, यास्यामः कथमीदृशेन तपसा तेषां दहा निष्क्रयम् ॥ ७॥ __ शब्दार्थः-घशा प्रकारनां वस्त्र पात्र अपाशरा घणी जातनी नीक्षा, चार प्रकारनो निकामां लावेलो आहार (१ नय २ जोज्य ३ लेह्य ४ चोष्य), शय्या, पुस्तक, पुस्तकोनां नपकरण, शिष्य श्रने शिकाना ग्रंथ पण (दिवारूप) जन्मथ मांझीने अमे (आज) वृक्ष थया त्यां सुधी पारका लावीने जोगवीए बीए तो श्रावा प्रकारना तपवमे तेमनो
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(५४) बदलो अरेरे शी रीते वालीशुं (एटले अमारी शो गति थशे.)॥ ७॥
॥गाथा मीना बुटा शब्दोना अर्थ. ॥ अन्तर-मनमां मयप-मधुपान करनार इदृशां आवानना अंतःकरणमां वर्णिक्वाणीयो वक्षः बंधाएलो मत्सरिणाम् द्वेष वास-उष्टवासना | अहं-हुँ। वाला
नाशास्मिना=बहारथी धुरि-पहेला; आबहिः-वहारथो नाश करनारा गलथी शमवताम्-शांतिवाला पाखएम कपट तावदेव-पहेलेथीजा प्रबन्न-बाना व्रतायत
एटलुंज नहींपण पापात्मनाम पापी धारिणा-धारण
चरितः चरित्रोवडे आत्मावाला करनारा - ततेथी नद्यम्नानदीना | बकशाम्बगलाना मेमारी . पाणी (थ) . जेवी नजरवाला हहा अरेरे कृतशुद्धि-करी मिथ्यादृशाम्-मिथ्या काशी
शुचि जेमणे । दृष्टिवाला गतिः गति थशे . अन्तर्मत्सरिणां बहिः शमवतां प्रग्न पापात्मनां, नद्यस्नः कृतशुद्धि मद्यपवर्णि रजुवासनाशामिनाम् ; पाखएमव्रतधारिणां बकढ़
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शां मिथ्यादृशामीदृशां, बद्दोऽहं धुरि तावदेव चरितैस्तन्मे हहा का गतिः ॥७॥
शब्दार्थः-अंतःकरणमां केषवाला, बहारथी शांतिवाला, बांनां पाप करवाथ पापात्मा, नदीना जलथा करी शुद्धि जेणे एवो मद्यान करनार वाणी या जेवो, पुष्ट वासनानो बहारथी नाश करनारा, बगलाना जेवी दृष्टो राखो कम्टो व्रतधारी थई फरता मिथ्याष्टीरूप आवा प्रकारना श्रमे बीए एटर्बुज नहीं पण (खराब) याचरण मां अग्रेसर थई हुं बंधाएलो बुं, ते मारअरेरे हे देव ! शो गति थशे ? ॥७॥ .. ॥ गाथा (ए मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ येषां जेमना । प्रशंसादिना प्रशंसा । निशा रात्री दर्शन-दर्शन विगेरेथी । इव-पेठे वन्दन-नमस्कार मुच्यन्ते मुकाय जे सिते=शुक्ल, अजवाप्रणमन-प्रणाम तमसा-अहानरूपी लीया समर्श अ ते अंधकारवडे .. । पके पखवाडीआमां
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(५६) प्रजा: लोको मुनयः मुनी | आत्मनिन्दनम् पोतत्क्षणात्=तेज वखते तेषां तेमने
तानी निंदाने तादृट्वातेवा नमः नमस्कार इदं आ अपि पण कर्महे अमे करिये । कर्मः करीपती सन्ति होय लिए
पुन: वली के को
संविना संवेगी बोधये बोधिबीजमाटे अपि-पण वयम्-अमे _येषां दर्शन वन्दन प्रणमन स्पर्श प्रशं. सादिना, मुच्यन्ते तपसा निशा श्व सिते पदे प्रजास्तदणात्; तादृदा अपि सन्ति केऽपि मुनयस्तेषां नमस्कुर्महे, संविग्ना वयमात्मनिन्दनमिदं कुर्मः पुनर्बोधये ॥ए।
शब्दार्थः-जेम श्रजवालोश्रा पखवामीयामां अं. धाराथी रात्री मुक्त थाय ने तेम जेमना दर्शन, नमस्कार, प्रणाम, स्पर्श तथा प्रशंसादिवमे लोको तेज वखते अज्ञान अंधकारथो मुक्त थाय जे तेवा पण केटलाक मुनी ले तेमने अमे नमस्कार करीए
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SO
.
पला
(५७) बीए, वली श्रमे संवेगी बोधी बीजने माटे आ आ. त्मनिंदा करिये जीए ॥ ए॥
गाथा १० मीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ रागो-राग । लजति थाय . । मां मने मे मारो
दाणं पलकमां बाधते-पीमा करे ले स्फुरति फुरे अथो वली कापेय-मांकमा जेवां दणं-दणवार; पल- मैत्री मैत्री लावना अटकचालां कमां
समालिङ्गति थाय डे कृपणा-नीच अथो बली दैन्यं दीनता; रंकप' अकृपा-निर्दय वैराग्यं वैराग्य पीमयति-
पीले परित्तै घेराएलां नम्लते यश् आवे कणं थोमी वारमा (कर्मो)
अथो बली कार्य-सयु द्वेषो द्वेष; अदेखाई हर्षः हर्ष हहा-अरेरे मां-मने
अपि पण कर्मनि: कोवमे ___ रागो मे स्फुरति दणं दाण मथो वैराग्य मुम्नते, वेषो मां नजति दणं दण मथो मैत्री समालिङ्गति; दैन्यं पीमयति क्षणं क्षण मथो वर्षोऽपि मां बाधते, कापेय कृपणाऽकृपा
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(५७) परिटतैः कार्य हहा कर्ममिः ॥१०॥ ___ शब्दार्थः-पलवारमां तो मारो राग फुरे बे, वली क्षणवारमां तो वैराग्य थ आवे , कणवारमा तो मने क्षेत्र थर जाय डे वलो थोमोवारमा मने मैत्री. चाव उपजे , कणवारमा रंकपणुं फुःख देडे, कण वारमा दरख पण मने पीमा करे डे (उत्पन्न थाय बे.) तेथी मांकमा जेवा अटकचालां, नीच अने निर्दय, घेराएलां कर्मोवके सयुः ॥ १० ॥
श्री हेमचंद्र आचार्य कृत
. श्रात्मगहीस्तव.. ॥ गाया १ लीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ त्व तमारा ईत आय की अहींथी | नाथ हे नाथ ! मत-मतरूपो शनरसः शांतरसना परमानंद-नत्कृष्ट अमृतपानोबा-अ. नर्मयः तरंगो
आनंदनी मृतपानथी नत्पन्न पराणयंतिधमाकेजे संपदं संपत्ति थएला
मां-मने त्वन्मतामृतपानोबा, इतः शमरसोर्मयः; पराणयंति मां नाथ, परमानंद संपदम् ॥ १॥
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(यह) शब्दार्थ :- हे नाथ ! तमारा मतरुत्री अमृत पानथकी उत्पन्न यता तरंगो ते छाहींथी मने परमानंदनी संपत्ति पाने बे ॥ १ ॥
॥ गाथा २ जीना बुध शब्दांना अर्थ. ॥
=
इतः हीं थी; आ | पामेला ठेकाणेथी च = वली
अनादि संसार मूर्ति तः = अनादि संसारनी वासना वृद्धि | विष= फेर
इतश्चानादि संसार, मूचितो मूर्त्तय त्यलम्; रागो रंग विष वेगो, हताशः करवाणि किम् ॥ २ ॥
शब्दार्थः - वली अहीं अनादि संसारनी वासनाए वृद्धि पामेला रागरुपी सर्वना विषनी बेचेनी मने अत्यंत मूर्छा पमाने बे माटे श्राशानंग थएलो डुं शुं करूं ? ॥ २ ॥
मूर्तयति = मूर्छा पाडेडे अलम= प्रत्यंत
राग= राग; विषय नरग - साप
आवेगः = बेचेनी
हत = हणाएन ।
आशः आशा
करवाणि= हूँ करूँ किम् =शुं
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(६०) ॥ गाथा ३ जीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ राग-राग कर्म-कर्म
अशक्ता-अशक्त अहि-सर्प वैशप्तम्-उष्ट, उख- अस्थि -ई छु गरल-गल फेर दायक घिधिकार पमो अत्रातः=मूळ पामेलो तत्-ते
मेमने अकार्ष का वक्तुम् कहेवाने पचन-गुप्त यत्जे | अपि-पण | पापिनः पापी
रागादि गरलाऽघ्रातो, ऽकार्ष यत्कर्मवैशसम्; तत्त्कुमप्यशक्तोस्मि, धिङ्मे प्रचन्न पापिनः३॥ ___ शब्दार्थः-रागरूपी साना फेरथी मूळ पामेला में जे उष्ट कर्म कयाँ ते कहेवाने पण हुं अस. मर्थ ९, मने गुप्त पापीने धिक्कार पमो ॥ ३ ॥
॥ गाथा ४ थीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ दाणं-दणमात्र; थो- कमी दमावान । कारितः करायो
मीवारमा मोहाथै-मोहादिए कपि चापलम् वानरसक्तः=लुब्धः आसक्त क्रीम्या-क्रीमाबके चेष्टा; वांदराना मुक्तः=मुक्त छुटो | श्व-जेम
जेवी चपलता क्रुद्धः क्रोधी | अहं
क्षणं सक्तः दाणं मुक्तः,दणं क्रुक्षः दणंदमी,
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(६१) मोहाद्यैः क्रीमयेवाहं,कारितः कपि चापलम्॥४॥ ___शब्दार्थः-कणवारमा आसक्त, कणमां मुक्त, क्षणमां क्रोधी, क्षणमां कमावान, एम मोहा दिए क्रीमामां मारी पासे वानर चेष्टा करावी ॥४॥
॥गाथा ५ मोना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ प्राप्य पामीने । वाक्-वाणी । नाथ हे स्वामि ! अपि पण काय शरीर शिरसि माथा नपर तव तारा कर्मजैः कर्मथीथएलां ज्वालितः बाल्यो संबोधि सम्यक् धर्मने ऽश्चेष्टितै ऽष्कर्मोवमे अनल: अग्नि मनो मन
मया में प्राप्यापि तव संबोधि,मनो वाकाय कर्मजैः पुश्यैष्टितैर्मया नाथ, शिरसि ज्वालितो ऽनलः॥५॥
शब्दार्थ:-हे नाथ ! तारा सम्यक् धर्मने पामीने पण मन, वचन अने कायाना व्यापारथी थएलां पुष्कर्मोबमे में (मारा) मांथे अग्नि सलगाव्यो ॥५॥
॥गाथा ६ ठीना बुटा शब्दोना अर्थ ॥ स्वयि तमे | त्रातरि रहक बतां | यत् जे अपि पण | त्रातारण करनार मोहादि-मोह विगेरे
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लिम्लुचैः चोरोवडे हताशः जेनी आशा हतः-हणाएलो रत्नत्रयंत्रण रत्नन नाश पामी ले मे मारां
| अस्मि हुँ छ हियत =ह ण कराय जे हा अफसोस । तत् ते कारण माटे
त्वय्यपि त्रातरि त्रात, र्यन्मोहादि मलिम्लुचैः; रत्न त्रयं मे ह्रियते, हताशोहा इतो. स्मि तत् ॥६॥
शब्दार्थः-हे रक्षक ! तमे रक्षण करनारा बतां मोहादिक चोरोए मारा ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्न त्रण चोर्या ने अफसोस ! ते कारण माटे हुँ निराश थएलो अने हणायेलो ढुं ॥६॥
॥गाथा ७ मीना छुटा शब्दना अर्थ ॥ . ब्रांत: जम्यो एक: एक अंघो-चरण कमलमां तीर्थानि-तीयों तेषु तेमने विषे विलन-लीन दृष्टः जोयो तारकः तारनार अस्मि टुं
तन्=ते माटे नाथ हे नाथ ! मया में
तब-तमारा | तारय-तारो ब्रांतस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः;
वंतने
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