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________________ ( ए ) व्याख्या:- हे नाथ! क्रोधमयेन अग्निना दग्धः के० क्रोधरूप अग्निए अत्यंत ताप पमामेलो ने डुष्टेन लोनाख्य महोरगेण दष्टः के० निर्दय एवा लोन नामे महा सर्पे ढंश करेलो, मने - निमानाजगरेण ग्रस्त के अहंकाररूपी अजगरे गलेलो, अने मायाजालेन बद्धः अस्मि के० कपटरूप जे जाल के० मत्सबंधन जाल सरखुं बंधन हेतु, तेणे बंध पामेलो हुं लुं, ए माटे त्वां कथं जेके तारूं केम सेवन करूं ? तो हे प्रनो ! तारी कृपाए क्रोध, लोन, अभिमान ने माया, एन्नो नाश यइने तारूं सेवन करवानो मारो हेतु क्यारे पूर्ण थशे ? एवो जावार्थ. ॥ ५ ॥ ॥ || गाथा ६ हीना बुटा शब्दोना अथ ॥ कृतं = करेलुं मया-में मुत्र - परलोक विषे हितं - हितकारी काम, पुण्यनुं काम. न नहीं च = वली, अने इहलोके - लोकमां प्रपि-पण लोकेश - हे लोकना नाथ ! सुखं सुख मे-मने अनूत् =थयुं अस्मादृशांप्रमारा सरखाना केवलं फक्त एव = ज
SR No.022028
Book TitleRatnakarsuri Krut Panchvisi Jinprabhsuri Krut Aatmnindashtak Hemchandracharya Krut Aatmgarhastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakarsuri, Jinprabhsuri, Hemchandracharya
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1909
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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