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( ) ध्वस्तोऽन्यमंत्रैः परमेष्ठिमंत्रः, कुशास्त्रवाकैय निहतागमोक्तिः; कर्तुं वृथाकर्म कुदेवसंगाद वांनिहि नाथ मतिन्त्रमो मे ॥१॥
शब्दार्थः–में बोजा मंत्रोवमे नवकार मंत्रनो अनादर कयों, कुशास्त्रनां वाक्योवमे सिद्धांतनी वाणी न सांजली, कुदेवना संगथी में पापकर्म निष्फल करवाने इच्उयु. हे नाथ ! खरेखर मारे। बुझिनो विपर्यास थयो ॥ १२ ॥
___ व्याख्याः -हे नाथ ! मे हि मतिनमोऽनूत के खरेखर माहरों शो आ बुझिविपर्यास थयो ! ! तेज कहे . मया के हुँ जे तेणें-परमेष्ठिमंत्रः के परमपदने विषे रहे . माटे परमेष्ठी-तेनो जे नमस्काररूप नमो अरिहंताणं इत्यादिक नवपदात्मक मंत्र, ते अन्य मंत्रध्वस्तः के बीजा मंत्रोए आदररहित कर्यो. तेमज में आगमोक्तिः के आगमनी सिक्षांत वाणी, ते कुशास्त्र वाक्यैः के वात्स्यायनादि वाक्योए करीने, अथवा कुत्सित एवां जे शास्त्रोतेना वाक्ये करीने निहता के नाश पमामी एटले श्रवण करी नहि. एवो अर्थ. तेमज में कुदेव संगात् के हरिहरादिक कुत्सित