SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मंश्च न साधुधर्मः, लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयाऽरण्यविलापतुल्यं ॥ १७ ॥ ___शब्दार्थः-में मनुष्यपणुं पामीने प्रनुपूजा न करी, सुपात्रे दान न दोधुं, श्रावक धर्मने न पायो तेमज साधु धर्म न पायो तेथी में आ बधो म. नुष्य जन्न जंगलमां विलाप करवा सरखो कर्यो फोकट गुमाव्योः ॥ हुए। ____ व्याख्याः -हे परमेष्टित, मया के हुँ जे-तेणे मानुष्यं लब्ध्वापि के पूजादिक कृत्यो करवा माटे योग्य एवा मनुष्यपणाने पामीने पण देवपूजा न कृता के अरिहंत देवनी पूजा करी नहीं; अने पात्रपूजा न कृता के साधुने जे दान देवू ते पात्रपूजा. ते पण करी नहि. नक्तंच ॥ अव्र पानं तथा वस्त्रमालयं शयनासन। शुश्रूषा वंदनं तुष्टिः, पूजा नवविधा गुरोः ॥१॥ तेमज में श्राधमः न के सम्यक्त पूर्वक द्वादश व्रत लदण धर्म, ते पण स्वीकार्यों नाहि. अने साधुधर्मः न के साधुनो जे पंच महाव्रत लक्षण धर्म, ते पण स्वीकार्यों नहि. ए माटे इदं स्मस्तं के ए अर्हतपूजा न करवी इत्यादिक सर्व, अरण्य विलापतुल्यं कृतं के अरण्यने विषे जे विलाप एटले रुदन तेना सरखं कर्यु. एटले मने मनुष्यपणुं
SR No.022028
Book TitleRatnakarsuri Krut Panchvisi Jinprabhsuri Krut Aatmnindashtak Hemchandracharya Krut Aatmgarhastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakarsuri, Jinprabhsuri, Hemchandracharya
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1909
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy