SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३ शब्दार्थः-में अवता एवा कामधेनु, कल्पवृक अने चिंतामणि रत्ननो श्वारूर पीमा उपजावो पण प्रगट सुख प्रापनार जैनधर्मने विषे (धर्मध्याननी इला) न कर, माटे हे जिनेश ! मा विशेष मुर्ख हालत तो जून ॥ १५॥ ___ व्याख्याः -हे जिनेश के हे केवलिपते ! मया के हुँ जे तेणे अतत्स्वपि के अविद्यमान एवां पण, कामधेनु, कल्ला चिंतामणि के मनोरथ पूर्ण करनारी एवी कामधेनु, कल्पना पूर्ण करनारूं कल्पद, अने चिंतित फल देनाएं चिंतामणि रत्न, एमने विषे स्पृहार्तिः के इलारूप चिंता, निश्चय के प्राप्त थवानो चक्रे के कर्यो; परंतु स्फुटशर्मदेपि के स्पष्टपणे करीने सुख देनारा पण, जैनधर्मे के जिनमोक्त एवा धर्मने विषे धर्माकरणरूप चिंता करी नहि. ते कारण माटे हे जिनेश! मे विमूढनावं के मारुं विशेष करीने जे मंदपणुं, ते प्रत्ये-पश्य के अवलोकन कर. ॥१॥ ॥ गाथा २० मीना बुटा शब्दना अर्थ ॥ सद्भोगलीला सारा लोगनी क्रीमा रोगकीला-रोगरूप लोढाना खीला न नहि धनागमः धननु आवq, धन मेच-बली; अने . . . लवकुं
SR No.022028
Book TitleRatnakarsuri Krut Panchvisi Jinprabhsuri Krut Aatmnindashtak Hemchandracharya Krut Aatmgarhastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakarsuri, Jinprabhsuri, Hemchandracharya
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1909
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy