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(४५) लय श्रेयस्करं प्रार्थये ॥२५॥
शब्दार्थः-हे केवलीश ! तारा विना बीजो कोई दीनोनो नद्धार करवाने तत्पर नथी अने आलोकने विषे माराथी बीजो कृपापात्र नथी, तोपण आ (लोकनी) संपत्ति हुँ मागतो नथी पण हे नगवन् ! हे मोदलक्ष्मीना समुझ ! हे मंगलना एक स्थान ! ए कल्याणकारक नत्तम बोधि रत्न, तेनीज केवल हुं प्रार्थना करूंबुं ॥ २५ ॥ .
व्याख्या:-हे जिनेश्वर के हे केवलीश ! त्वदपरः के तारा विना बोजो पुरुष दीनोशार धुरंधरः के दीनोनो नधार करवा माटे तत्पर एवो नास्ते के नथी. अने अत्रजने के आ लोकने विषे मदन्यः के माराथी बीजो पुरुष कृपापात्रं नास्ते के कृपार्नु स्थान नथी. अर्थात् कृपा करवाने अत्यंत योग्य एवं स्थान ते माराथी बीजु कोइ नथी. जो एवं ने तथापि एतां श्रियं न याचे के हाथी, घोमा कोशादिक सर्व जन मध्ये प्रसि जे ए संपत्ति, ते मलवा माटे हुं प्रार्थना करतो नथी. किंतु के शुं तो हे अर्हन के हे जगवन् ! हे शिवश्रीरत्नाकर के दे मोद सदमीना समुश्! ह मंगलैकनिलय हे बरैक मंदिर ! इदं श्रेयस्कर के ए कल्याण