Book Title: Ratnakarsuri Krut Panchvisi Jinprabhsuri Krut Aatmnindashtak Hemchandracharya Krut Aatmgarhastava
Author(s): Ratnakarsuri, Jinprabhsuri, Hemchandracharya
Publisher: Balabhai Kakalbhai

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ (१५) शब्दार्थः-हे देव ! हुँ (एम) मानुडं के अमारा सरखार्नु मन सुंदर वर्तुल (जेवा) तारा मुखरुप अमृत किरणना लालथी मोटा थानंदरूप र. सने अवीनूत थयुं नहीं तेथी ते पथरथी पण कठण जाणवू ॥७॥ व्याख्या:-हे दव के हे नाथ ! हुं एबुं मार्नु छ के, यदस्मादृशां मनः के जे अमारा सरखार्नु मन, मनोज्ञ के सुदर, वृत के वर्तुल एवं जे त्वदास्य के तारूं मुख, तेज कोइ एक, पीयूष मयूख के अमृतकिरण चं, तेना लाने करीने अथवा मनोइ के सारं ने वृत्त के शील जेनुं, एवा हे मनोवृत्त, हे वीतराग ! तारा मुख चंना लाने करीने महानंदरसं के सद्यारसा स्वादथी नत्पन्न थएली जे परम प्रीति तेज कोई एक रस के नदक तेने न पुतं के इवीनूत थयुं नथी; तदश्मतोपि कगरं के ते पाषाण करतां पण कठण जाणवं. कारण, चंइना दर्शने करीने जीवरहित एवो पण चंकांत पाषाण चीजूत थाय , अने मनने तो तारा - मुखरुप चंइना दर्शने करी इव के पिंगलवु प्राप्त थयुं नहि. ते कारण माटे ते मन, पाषाण करतां पण कगेर जाणq. एवो नावार्थ. ॥७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64