Book Title: Ratnakarand Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
लोक में गाय के दूध को भी दूध कहते हैं और आकड़ा आदि वनस्पतियों के दूध को भी दूध कहा जाता है। इसी प्रकार अमृत के समान अजर-अमर सुख शांति के प्रदाता रत्नत्रय को जिसका यहां वर्णन किया जाएगा। धर्म कहते हैं किन्तु लोक में मिथ्यात्व मोह, कषाय, अज्ञान तथा हिंसा आदि पापाचार को भी पाखण्डी जन धर्म शब्द से बोलते हैं, जो कि दुःखरूप संसार परिभ्रमण का कारण है । ऐसे धर्म को वास्तव में अधर्म ही समझना चाहिए । इस अधर्म से बचने के लिए समीचीन विशेषण दिया है । *
सतपुरुषों का स्वभाव ही निरपेक्षतया परोपकार करने का हुआ करता है । वे सहज रूप से दूसरों की भलाई में प्रवृत्ति किया करते हैं । दूसरे का कल्याण करने में अपने लाभ-अलाभ का विचार करता मध्यम या जघन्य पुरुषों का काम है । अतएव ख्याति पूजा लाभ आदि किसी भी ऐहिक प्रतिफल की आकांक्षा के बिना केवल परोपकार की भावना ने ही ग्रंथकर्ता को इस कार्य के लिए प्रेरित किया है । यश लाभादिक के लिए जो ग्रन्थ निर्माण किया जाता है यह उत्तम पुरुषों में प्रशंसनीय नहीं माना जाता है । संसार के सभी सम्बन्धों से सर्वथा रहित जंनाचार्यों की कोई भी कृति या रचना ख्याति-पूजा-लाभ के लिए न तो अब तक हुई है और न वैसा होने का कोई कारण ही है । क्योंकि वे तो अध्यात्मनिरत वीतरागता के उपासक मुमुक्षु हुआ करते हैं । दुःखमय संसारकूप में पड़ते हुए जीवों को देखकर दयापूर्ण दृष्टि से प्रेरित होकर उनके उद्धार की भावनारूप परोपकार वृत्ति ही इस ग्रंथ के निर्माण का अन्तरंग हेतु है ।
* परन्तु समीचीन शब्द से भी दो तरह के अर्थ का बोध होता है । एक तो शुभ और दूसरा शुद्ध । जो केवल ससार के सुखों का कारण है वह शुभ है, और जो अभ्युदय के लाभ के सिवाय अर्थात् उनका कारण होकर भी जो मुख्यतया संसार निवृत्ति का कारण है वह शुद्ध कहा जाता है । समीचीन विशेषण के द्वारा शुभ और शुद्ध दोनों का बांध होता है । अत: 'निबर्हण' शब्द के द्वारा शुद्ध धर्म का बोध यहाँ कराया गया है। क्योंकि शुभोपयोगरूप धर्म दो तरह से सम्भव है। एक सम्यक्त्व का सहचारी और दूसरा मिध्यात्व का सहचारी कर्मों की संवर निर्जरा तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि सम्यग्दर्शन के द्वारा ग्रात्मद्रव्य में शुद्धता प्राप्त नहीं हो जाती। और जब तक आत्म द्रव्य में शुद्धता प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक जोव कर्मों का निबर्हण' नाश करने में समर्थ भी नहीं हो सकता ।
इस प्रकार दोनों विशेषणों द्वारा धर्म का द्वे विषय प्रकट किया गया है। शुभ-व्यवहार धर्म परम्परा से मोक्ष का कारण है और शुद्ध-निश्चय धर्म साक्षात् कारण है ।