Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 14
________________ प्रस्तावना कि इससे स्त्रियोंका, श्राविकाओंका नाम नहीं आता है। केवल पुरुषोंका नाम ही आता है। इसलिये इस शास्त्रका उपयोग केवल पुरुषोंके लिये बताया गया है । इस शंकाका समाधान यह है कि इसमें मोक्षमार्गका ही वर्णन है और मोक्षमार्गके प्रकरणमें स्त्रियोंका भी ग्रहण हो जाता है फिर शंका होती है। मनुष्यगतिनामकर्मके उदयसे पुरुष और स्त्री दोनों मनुष्य कहे जाते हैं। परन्तु पुरुषका उल्लेख होनेसे स्त्रीका ग्रहण कैसे हो सकता है । इसका समाधान यह है कि यहाँ मोक्षमार्गका प्रकरण होनेसे पुरुषके नामसे स्त्री भी गभित हो जाती है । जैसा कि "अस्ति पुरुषश्चिदात्मा' इस शास्त्रमें प्रमाणसे चैतन्य आत्माको पुरुष कहा गया है। चैतन्य आत्मा पुरुष स्त्री दोनों हैं अतः पुरुष और स्त्री अर्थात् श्रावक और श्राविका दोनोंके लिये शास्त्र हितकारी है। चार पुरुषार्थोंमें धर्म पुरुषार्थ प्रथम और प्रधान है । धर्मका साधन करनेसे ही आगेके पुरुषार्थ प्राप्त हो सकते हैं । धर्म साधन नहीं है तो कोई भी पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होंगे। क्योंकि धर्म साधनसे पुण्य होता है उससे अर्थोपार्जन आदि सुखप्रद कार्य होते हैं। अतः धर्म पुरुषार्थ प्रथम एवं मुख्य है। अर्थोपार्जन तो अनीतिसे भी होता है परन्तु न्यायपूर्वक बिना ठगीके जो अर्थ-धनका कमाना है वही अर्थ पुरुषार्थ है । काम पुरुषार्थमें यह शंका होती है कि काम सेवन तो इन्द्रिय विषयकी लालसाका परिणाम है तो वह पुरुषार्थ कैसा? वह तो निंद्य है। इसके समाधान में यह समझ लेना चाहिये कि एक तो कामवासना है जो इन्द्रिय विषकी तृप्तिका रूप है । वह त्याज्य है । वह काम पुरुषार्थ नहीं है किन्तु मोक्षमार्ग चालू रखने के लिये केवल अपनी धर्मपत्नीके साथ शुद्ध संतानकी उत्पत्तिको भावनासे जो संयोग किया जाता है वह काम पुरुषार्थ त्याज्य नहीं भी है अपितु व्रती पुरुष भी काम पुरुषार्थसे अपने गृहस्थाश्रमको धर्मसेवी बनाते हैं। मोक्ष पुरुषार्थ मुनिमार्ग द्वारा ही साध्य है । इन्हीं चारों पुरुषार्थोकी सिद्धिका उपाय इस पुरुषार्थसिद्धयुपाय शास्त्रमें आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने बड़े महत्वके साथ समुचित रूपसे किया। आचार्य अमृतचन्द्रसूरिको पद एवं श्रेणी ___ इस पुरुषार्थसिद्धयुपाय शास्त्रकी रचना आचार्य प्रमुख श्री अमृतचन्द्राचार्यने की है। आचार्य शिरोमणि कुन्दकुन्द स्वामीकी यह श्रेणी अथवा परम्परा श्रेणीमें प्रमुख स्थान रखती है। दूसरे शब्दोंमें यह कहना चाहिये कि आचार्य कुन्दकुन्द स्वामोके अन्तस्तत्वको आचार्य अमृतचन्द्रने जैसा स्पष्ट किया है वह अनुपम एवं अतुल्य है उनका सूक्ष्मान्वेषण एवं गंभीर भाव और शब्द रचना अलग ही है और अनोखी है। उनकी शब्द शैली और भाव भंगीसे ग्रन्थकर्ताका नामोल्लेख जाने बिना ही स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थके कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र हैं। समयसारकी संस्कृत टीकामें आचार्य कुन्दकुन्दके हृद्य ( अभिप्राय ) को आचार्य अमृतचन्द्रने सांगोपांग रूपमें खुलासा किया है। उसी प्रकारकी भाव शैली और शब्द शैली उनकी स्वतन्त्र रचना तत्त्वार्थसारमें है उसी प्रकारकी भावशैली और शब्दशैली ग्रन्थराज पंचाध्यायीमें भी मिलती है। वर्तमानके कुछ विद्वान् अपनी समझसे मतभेद और वैसी धारणाके अनुसार पंचाध्यायीका कर्ता श्री पं० राजमल्लजीको बनाते हैं जिन्होंने लाटी संहिताकी रचना की है। परन्तु लाटी संहिताके स्वाध्यायी यह अच्छी तरह समझ गये होंगे कि लाटी संहिता और पंचाध्यायीकी रचनासे आकाश पाताल जैसा अन्तर है। लाटी संहितामें सिद्धान्तका स्थूल रूपमें कथन है। उसकी शब्द रचना भी साधारण है। और भाव भी गंभीर नहीं है। पंचाध्यायीकी रचना बहुत सूक्ष्म अत्यन्त गम्भीर और सिद्धान्तमर्मस्पर्शी हैं। शब्द शैली भी उनके अन्य शास्त्रोंकी रचनासे मिलती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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