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परमात्मा का स्वरूप - बोध
जैन- शासन में उपास्य की भावावस्था की पूजा भी उपासक के शुभ परिणाम के अनुसार ही फल देती है, उपास्य की प्रसन्नता अथवा अन्य किसी नियमानुसार नहीं। क्योंकि जैन- शासन के उपास्य वीतराग होने से वे कभी प्रसन्न / अप्रसन्न नहीं होते हैं। हाँ, व्यवहार की अपेक्षा से इतना कह सकते हैं कि वे तारक हमेशा प्राणी मात्र पर एक समान प्रसन्न रहने वाले तथा कृपा रस से भरपूर हैं। इतना होने पर भी जब तक उपासक, उनके प्रति सद्भाववृत्ति वाला अथवा आराधक भाव वाला नहीं बनता है, तब तक वह कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर सकता है।
आराधक को अपने शुभ परिणाम से ही तिरने का है, इस शुभ परिणाम की जागृति के लिए आराध्य का साक्षात् देह तथा उसका आकार जिस प्रकार वन्दन - पूजन तथा नमस्कारादि में निमित्त बनता है, वैसे ही आराध्य की स्थापना भी उनकी पूजा आदि द्वारा आराधक के परिणामों को निर्मल बनाती है।
श्री वीतराग की साक्षात् उपासना भी जैसे श्री वीतराग को लेश भी उपकारक नहीं है, फिर भी वह पूजक के लिए उपकारक बनती है, वैसे ही श्री वीतराग की स्थापना की उपासना भी श्री वीतराग को किसी भी प्रकार से लाभदायक नहीं होने पर भी, उपासकों को तो अवश्य लाभ करती है; क्योंकि इससे उपासक के गुण-बहुमान, कृतज्ञता, विनयादि गुणों का पालन अवश्य सिद्ध होता है। दोष निवारण व गुण-प्राप्ति आदि की प्रेरणा भी अवश्य होती है । गुण- बहुमान आदि एक-एक कार्य भी महान्ं कर्म-निर्जरा कराने वाला है, तो फिर वे समस्त कार्य जहाँ एक साथ सिद्ध होते हैं, ऐसे श्री वीतराग की उपासना सुज्ञ पुरुषों को अत्यन्त आदरणीय बने, इसमें आश्चर्य भी क्या है !
सभी को स्थापना स्वीकार करनी ही पडती है
अपने उपास्य को वीतराग मानने वाले के लिए उसकी उपासना हेतु जिस प्रकार मूर्ति आदि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जो अपने आराध्य को वीतराग नहीं मानकर रागी मानते हैं, उनको भी, अपने आराध्य की उपासना के लिए उसकी स्थापना की आवश्यकता
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