Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 192
________________ (3) स्वान्तं ध्वान्तमयं मुखं विषमयं दृग् धूमधारामयी, तेषां यैर्न नता स्तुता न भगवन्मूर्तिर्न वा प्रेक्षिता । देवैचारणपुंगवैः सहृदयैरानन्दितैर्वन्दिता, ये त्वेना समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रं जनुः॥ जिन्होंने भगवान की मूर्ति को नमस्कार नहीं किया, उनका हृदय अन्धकारमय है; जिन्होंने उनकी स्तुति नहीं की, उनका मुख विषमय है तथा जिन्होंने उनका दर्शन नहीं किया, उनकी दृष्टि धुएँ से व्याप्त है। देवगण, चारण, मुनि और तत्त्ववेत्ताओं द्वारा आनन्द से वन्दना की हुई इस प्रतिमा की जो उपासना करते हैं, उनकी बुद्धि कृतार्थ है और उनका जन्म पवित्र है ॥3॥ (4) उत्फुल्लामिव मालती मधुकरो रेवामिवेभः प्रियां, माकन्दद्रुममंजरीमिव पिकः सौन्दर्यभाजं मधौ । नन्दच्चन्दनचारुनन्दनवनीभूमिमिव द्यो पति . स्तीर्थेशप्रतिमां न हि क्षणमपि स्वान्ताद्धि मुंचाम्यहम्॥ जैसे भ्रमर प्रफुल्लित मालती को नहीं छोड़ता, जैसे हाथी मनोहर रेवा नदी को नहीं छोड़ता, जैसे कोयल वसंत ऋतु में सुन्दर आम्रवृक्ष की डाली को नहीं छोड़ती और जैसे स्वर्गपति इन्द्र चन्दन वृक्षों से सुन्दर ऐसी नन्दनवन की भूमि को नहीं छोड़ता, वैसे ही मैं तीर्थंकर भगवन्त की प्रतिमा को अपने हृदय से पलभर भी दूर नहीं करता ॥4॥ (5) मोहोद्दामदवानलप्रशमने पाथोदवृष्टिः शम - स्रोतानिर्झरिणी समीहितविधौ कल्पद्रुवल्लिः सताम्। संसारप्रबलान्धकारमथने, मार्तंडचंडद्युति . जैनीमूर्तिरुपास्यतां शिवसुखे भव्याः पिपासास्ति चेत्॥ हे भव्य प्राणियो! जो तुम्हें मोक्षसुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो तुम श्री तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा की उपासना करो, जो प्रतिमा मोहरूपी दावानल को शान्त करने में मेघवृष्टि रूप है, जो समता रूप प्रवाह देने के लिए नदी है, जो सत्पुरुषों को वांछित देने में कल्पलता है और जो संसाररूपी उग्र अन्धकार को नाश करने में सूर्य की तीव्र प्रचारूप है ॥5॥ 185

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