Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 193
________________ दर्श दर्शमवापमव्ययमुदं विद्योतमाना लसद् . विश्वासं प्रतिमामकेन रहित! स्वां ते सदानन्द! याम्! सा धत्ते स्वरसप्रसृत्वरगुणस्थानोचितामानमद् . विश्वा संप्रति मामके नरहित! स्वान्ते सदानं दयाम्॥ . हे सर्व दुःख रहित प्रभो! हे सदा आनन्दमय नाथ! आपकी मूर्ति को देख-देखकर मैं अपने हृदय में विश्वास प्राप्त कर अव्यय एवं अविनाशी हर्ष को प्राप्त हुआ हूँ। हे मानवहितकारी प्रभो! आपकी यह प्रतिमा अभयदान सहित उपाधि बिना वृद्धिंगत गुणस्थानक के योग्य दया का पोषण करती है ॥6॥ (7) त्वद्बिम्बे विधृते हृदि स्फुरति न प्रागेव रूपान्तरं, त्वद्रूपे तु ततः स्मृते भुवि भवेन्नो रूपमात्रप्रथा। तस्मात्त्वन्मदभेदबुद्ध्युदयतो नो युष्मदस्मत्पदो . ल्लेखः किंचिदगोचरं तु लसति ज्योतिः परं चिन्मयम्॥ हे प्रभो! आपके बिम्ब को हृदय में धारण करने के बाद दूसरा कोई रूप हृदय में स्फुरायमान नहीं होता और आपके रूप का स्मरण होते ही पृथ्वी पर अन्य किसी रूप की प्रसिद्धि नहीं होती। इसके लिए "तू वही मैं' ऐसी अभेद बुद्धि के उदय से "युष्मद् और अस्मद्' पद का उल्लेख भी नहीं होता और कोई अगोचर परम चैतन्यमय ज्योति अन्तर में स्फुरायमान होती है ॥7॥ (8) किं ब्रह्मैकमयी किमुत्सवमयी श्रेयोमयी किं किमु, ज्ञानानन्दमयी किमुन्नतिमयी किं सर्वशोभामयी। इत्यं किं किमितिप्रकल्पनपरस्त्वन्मूर्तिरुद्धोक्षिता, किं सर्वातिगमेव दर्शयति सद्ध्यानप्रसादान्महः॥ क्या यह प्रतिमा ब्रह्ममय है? उत्सवमय है? कल्याणमय है? उन्नतिमय है? सर्व शोभामय है? इस प्रकार की कल्पना करते कवियों द्वारा देखी हुई तुम्हारी प्रतिमा सद्ध्यान के प्रसाद से सबको उल्लंघन करने वाली ज्ञानरूप तेज को बताती है ॥8॥ 1861

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