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चार बार सिर अर्थात् पहले तथा दूसरे प्रवेश में दो-दो बार सिर झुकाना, त्रि गुप्त अर्थात् मन-वचन-काया इन तीनों से वन्दना सिवाय दूसरा कार्य न करना, दो प्रवेश अर्थात् गुरुमहाराज की सीमा में प्रवेश करना और एक निष्क्रमण अर्थात् गुरुमहाराज की सीमा में प्रवेश रूप अवग्रह से बाहर निकलना, इस प्रकार कुल पच्चीस बोल हुए, उसमें गुरुमहाराज की हद में दो बार प्रवेश करना और एक बार निकलना यह प्रत्यक्ष गुरु के अभाव में उनकी स्थापना बिना किस प्रकार सम्भव है? ।
___ वन्दन के पाठ में गुरुमहाराज की आज्ञा मांगकर भीतर प्रवेश करने की स्पष्ट आज्ञा है, जैसे कि.
"इच्छामि खमासमणो वंदिउं जायणिज्जाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि अहो कायं कायसंफासं खमणिज्जो भे किलामो।"
अर्थात् - मेरी यह इच्छा है कि हे क्षमाश्रमण! वन्दन हेतु पाप-व्यापार से रहित शरीर की शक्ति से मित अवग्रह अर्थात् साढ़े तीन हाथ प्रमाण क्षेत्र में प्रवेश करने की मुझे आज्ञा प्रदान करो। उस समय गुरु की आज्ञा लेकर शिष्य 'निसीहि' अर्थात् गुरुवन्दन सिवाय अन्य क्रिया का निषेध कर अवग्रह में प्रवेश करे और दोनों हाथ मस्तक पर लगाकर गुरु के चरण स्पर्श करते हुए 'अहो कायं कायसंफासं!' आदि पाठ कहे, जिसका अर्थ है - 'हे भगवन्त! आपकी अधोकाया अर्थात् चरण-कमल को मेरी उत्तम काया अर्थात् मस्तक द्वारा स्पर्श करते समय आपको जो कष्ट पहुँचाया हो उसे क्षमा करो।'
इस प्रकार अनेक स्थानों पर गुरु महाराज की आज्ञा मांग कर क्रिया करने की होती है। ऐसी क्रिया गुरु के अभाव में गुरु की स्थापना बिना कैसे हो सकती है?
यदि कहोगे कि गुरु-अवस्था की आकृति की मन में कल्पना कर आज्ञा आदि मांगुंगा तब तो स्थापना निक्षेप का सहज रूप से स्वीकार हो गया। फिर मृत्यु उपरान्त अन्य गति में गये हुए गुरुओं को याद करके उनका गुणगान करने में आता है, तो उसको किस निक्षेप के अधीन समझेंगे? गुरुपने का भाव निक्षेप तो उस समय उपस्थित होता ही नहीं है। भावनिक्षेप से तो गुरु अन्य गति में हैं। इतना होने पर भी 'गुरुपने की पूर्ण अवस्था की मन में कल्पना करके गुणगान आदि करने में आता है', ऐसा कहने से स्थापना निक्षेप एवं द्रव्य निक्षेप दोनों का सहज स्वीकार हो जाता है।
प्रश्न 4 - श्री ऋषभदेय स्यामी के समय में शेष तेईस तीर्थंकरों के जीय संसार में थे; फिर भी उस समय उनको यन्दन करने में धर्म कैसे हो सकता है?
उत्तर - श्री ऋषभदेव स्वामी के समय में अन्य तेईस तीर्थंकरों के वन्दन का विषय द्रव्यनिक्षेप के आधीन है। द्रव्य बिना भाव, स्थापना अथवा नाम कुछ भी नहीं हो सकता। श्री
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