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पूजनीय हों और मूर्ति पूजनीय न हो तो स्वर्गवासी सभी गुरु अपूजनीय ही बनेंगे, क्योंकि वे उपदेश तो देते नहीं है। तो फिर उनको भी हाथ जोड़ना या नमस्कारादि करना छोड़ देना पड़ेगा।
आगे चलकर कहा जाय कि गुरु उपदेश क्यों देते हैं? क्या उपदेश द्वारा स्व-पर-हित साधकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए? यदि उपदेश देने में गुरुओं का यही ध्येय हो तो मोक्षप्राप्ति के पश्चात् अशरीरी अवस्था में वे किस प्रकार उपदेश दे सकेंगे? इससे तुम्हारी दृष्टि में मोक्ष में जाने के बाद वे अपूज्य होंगे और उतने ही पूज्य रहेंगे जितन कि मोक्ष के इरादे अर्थात् अशरीरी बनने के इरादे से उपदेश न दें और केवल इस चतुर्गति रूप संसार में सदा काल भटकने वाले बनें रहें, इस इरादे से उपदेश दें। क्योंकि इसके बिना उनके द्वारा सदा काल बोध नहीं दिया जा सकता और यदि वे बोध न दें तो तुम्हारी दृष्टि से पूजनीय नहीं गिने जायेंगे। परन्तु बोध देने के लिए आहार लेना पड़े, निहारादि करना पड़े, वे भी तुम्हारी दृष्टि में पूजनीय और मोक्ष में जाने के बाद अनाहारी बनने वाले पूज्य नहीं। ___'उपदेश करें वे ही उत्तम' ऐसा मानने पर अन्त में, आहार करे वह उत्तम और आहार नहीं करे वह उत्तम नहीं' - ऐसा मानने का प्रसंग आ पड़ेगा। अतः सदुपदेशादि करें वे तो उत्तम है ही परन्तु जो ऐसे शुभ कार्य करके निवृत्त बन चुके हैं वे तो उनसे भी उत्तम हैं, ऐसा मानना ही चाहिए।
'मूर्ति उपदेश नहीं देती अतः पूजनीय नहीं और गुरु उपदेश देते हैं अतः पूजनीय हैं' ऐसी अज्ञानपूर्ण बातें करने वाले तत्त्व को नहीं समझते। उपदेशादि देकर जो धन्य बन चुके हैं, ऐसे सिद्ध भगवन्तों की मूर्ति तो उपदेश देने वाले गुरुओं से भी अधिक पूजनीय है क्योंकि गुरुजन उनका आलम्बन लेकर ही गुरु बन सके हैं। जो सिद्ध भगवन्तों की पूजा करने से इन्कार करते हैं उनके समान कृतघ्न इस जगत् में दूसरा कोई भी नहीं।
प्रश्न 38 - यहुत लोग कहते हैं कि केयल मूलसूत्र को मानना चाहिए, टीका आदि पीछे से यनी हैं अत: उनकों नहीं मानना चाहिए। तो इसमें क्या तथ्य है?
उत्तर - मूलसूत्रों में कहा है कि 'गणहरागंयंति अरिहा भासइ।' श्री गणधर भगवन्त सूत्र को गूंथते हैं और श्री अरिहन्त भगवन्त अर्थ कहते हैं। केवल मूलसूत्र को मानने का कहने वाले छद्मस्थ गणधर भगवन्तों का वचन मानने को कहते हैं तथा केवलज्ञानियों द्वारा बताये हुए अर्थ जिनमें भरे हुए हैं ऐसे टीका, चूर्णि, भाष्य तथा नियुक्ति आदि शास्त्रों को मानने से इन्कार करते हैं। छद्मस्थ गणधरों का कहा मानना और केवलज्ञानी भगवान का कहा नहीं मानना, क्या यह उचित है? इस कारण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर नियुक्ति आदि को मानने के लिये उपदेश दिया है। कहा है कि -
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