Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 133
________________ - इस तरह आज्ञा सहित के कार्यों में स्वरूपहिंसा होती है परन्तु परिणाम की विशुद्धता से अनुबन्ध रूप से 'दया है' ऐसा समझना चाहिए। यहाँ पर कोई शंका करे कि - "श्री तीर्थंकरदेव अपनी भक्ति के लिए छह काय के जीवों के संहार की आज्ञा किस प्रकार दे सकते हैं?" उसके उत्तर में कहने का है कि महान् पुरुष कदापि ऐसा नहीं कहते कि 'मेरी भक्ति करो', 'मुझे वन्दन करो' अथवा 'मेरी पूजा करो'। पर श्री गणधर महाराज की बताई हुई शास्त्रयुक्त विधि के अनुसार पूजन करने से सेवक वर्ग का अवश्य कल्याण होता है। जैसे साधु स्वयं को लक्ष्य कर नहीं कहता कि 'मेरी भक्ति-सेवा करो' पर उपदेश द्वारा सामान्य रीति से गुरुभक्ति का स्वरूप बतावे, सुपात्रदान की महिमा समझावे तथा भक्तजन तदनुसार आचरण करें, तो इससे साधु को अपनी भक्ति का उपदेश देने वाला नहीं गिना जाता, क्योंकि समुदाय की भक्ति के उपदेश में व्यक्ति का प्रवर्तकपन नहीं गिना जाता। प्रश्न 47- किसी जीव को मारना, छह काय का संहार करना, यह हिंसा है तथा जीव पर दया लाकर उसे न मारना, छह काय की रक्षा करना, यह धर्म है तो फिर जानयुझ कर जीयहिंसा से धर्म कैसे होता है? उत्तर - यह प्रश्न एकान्तवादी का है। पहले साधु-साध्वी तथा श्रावकों के लिए जिस काम को करने की आज्ञा बतायी गयी है, उसमें क्या हिंसा नहीं है ? अवश्य है; पर यह हिंसा केवल द्रव्यहिंसा है, मारने के द्वेष रुप परिणाम से की हुई हिंसा नहीं है। इसलिए वह हिंसा पापकारी अथवा भावहिंसा नहीं मानी जाती। बाकी हिंसा तो श्वास लेते, हाथ-पैर हिलाते और चलते बैठते हुआ ही करती है। प्रायः कोई भी कार्य ऐसा नहीं, जिसमें द्रव्यहिंसा न होती हो। अब ऊपर के कामों में होने वाली हिंसा अनजाने होती है, ऐसा कहना भी अनुचित है क्योंकि आहार, निहार, विहार आदि तमाम आवश्यक क्रियाएँ जान-बुझ कर की जाती हैं। उनको अनजान में करने का, कहने से तो उन क्रियाओं के करने वाले सभी साधु, श्रावक अज्ञानी ठहरेंगे जिनको कृत्याकृत्य व गमनागमन की भी खबर नहीं। और यदि ऐसा होता है, तो उन्हें सम्यग्दृष्टि कैसे कह सकते हैं? अतः भगवान की आज्ञा में रह कर उनके आदेशानुसार काम करने वाला व्यक्ति हिंसक नहीं, परन्तु अहिंसक और पापी नहीं, किन्तु पुण्यवान गिना जाता है। यदि ऐसा न मानें तो एकेन्द्रिय जीव तो जाने-अनजाने लेशमात्र भी हिंसा नहीं करते, इसलिए उनको तो सर्वोच्च गति प्राप्त होनी चाहिए और यदि ऐसा ही बन जाता है तो क्रिया, कष्ट, तप, जप आदि का क्या प्रयोजन? केवल मुँह से 'दया, दया' की पुकार करने से दया उत्पन्न नहीं होती। इसके लिए 126

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