Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 168
________________ आथरितेति वा उवज्झाएति वा पवतीति वा थेरेति वा गणीति वा गणघरेति वा गणावच्छेएति वा जेसिं पभावेणं मए इता एतारूया दिव्या देविड्डी दिव्या देवजुत्ती लद्धा पत्ता अभिसन्नागथा, तं गच्छामि णं ते भगवंते यंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइथं पज्जुवासामि।' अर्थ - देवलोक में नवीन उत्पन्न देव दिव्य कामभोग में मूर्च्छित नहीं होता है। कामभोगों को अनित्य जानकर अतिगृद्ध - अति आसक्त नहीं बनता है। वह मन में सोचता है कि "मेरे मनुष्य भव के धर्मोपदेष्टा आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणि, गच्छ के स्वामी तथा जिनके प्रभाव से इस प्रत्यक्ष देव ऋद्धि, दिव्य कान्ति, दिव्य प्रभाव को मैं प्राप्त कर सका हूँ, अतः मैं वहाँ जाकर उपकारी भगवन्त को वन्दन करूँगा, नमस्कार करूंगा, सत्कार व सम्मान करूंगा, कल्याणकारी मंगलकारी देव चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा की सेवा करूंगा।' और भी कहा है - 'एसणं माणुस्सए भये णाणीति या तबस्सी ति वा अइदुक्करदुक्करकारते, तं गच्छामि णं ते भगवंते वंदामि जाय पज्जुवासानि । ' (ठाणांग सूत्र) भावार्थ - (देवता ऐसा विचार करते है कि) मनुष्य भव में बड़े-बड़े ज्ञानी महात्मा हैं, तपस्वी हैं, अति उत्कृष्ट आचरण करने वाले हैं, सिंहगुफा के पास, सर्प बिल के पास कायोत्सर्ग करने वाले हैं, दुष्करं ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले हैं, अतः मैं जाकर ऐसे भगवान को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ और उनकी सेवा भक्ति करूँ। 'वे पश्चाताप करते हैं कि - - - पुन: ' "अहो ! दस दृष्टान्त से दुर्लभ ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर पूर्वभव में गुरु भगवन्त के योग से तप संयम का स्वीकार करने पर भी मैंने प्रमाद का त्याग नहीं किया। तप-संयम का सुन्दर रीति से पालन नहीं किया, आलस्य से गुरु तथा सार्मिक की वैयावच्च बराबर नहीं की, सिद्धान्त का अध्ययन नहीं किया, चारित्र की मर्यादाओं का दीर्घकाल तक बराबर पालन नहीं किया, अब ऐसे संयोग मुझे पुनः कब प्राप्त होंगे? और कब मैं हृदय में शुभ ध्यान करूंगा ? मोक्षपद को मैं कब प्राप्त करूंगा।' जिससे गर्भावास में आने का मेरा सदा काल के लिए छूट जाय । " श्री ठाणांग सूत्र के कथनानुसार अनेक प्रकार से शुभ भावनाओं में लीन रहने वाले तथा जिनेश्वर की आज्ञा का पालन करने वाले देवताओं को अधर्मी कैसे कहा जाए? श्री उत्तराध्ययन सूत्र के सातवें अध्ययन में देवगति का लाभ मनुष्य को कहा गया है और आचार्य भगवान् कहते हैं कि - 161

Loading...

Page Navigation
1 ... 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208