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'हम भी उसकी उसी प्रकार से श्रद्धा करते हैं।' 'धीरस्सयस्स धीरतं, सव्यधम्माणुयत्तिणो। चिच्चा अघम्म धम्मिटे, देवेसु उययज्जड़ ।।1।।
भावार्थ- इस मनुष्य भव में वीतराग प्रणीत तप-संयम की साधना कर देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए।
__ यदि उन देवों को अधर्मी कहेंगे तो क्या जिनराज द्वारा कथित तप और संयम की उन्होंने अधर्मी बनने के लिए साधना की थी, वर्तमान में साधना कर रहे हैं और भविष्य में साधना करेंगे? यदि सर्व देवों को असंयति ही गिनेंगे तो तप-संयम की साधना से वीतराग धर्म को खो देने की ही प्रवृत्ति होगी और मिथ्यात्व की ही प्राप्ति होगी, इससे तो तप-संयम की क्रिया ही दुर्गति का कारण बन जाएगी।
वर्तमान में इस क्षेत्र में मोक्ष तो है नहीं, तो फिर अच्छे-अच्छे क्रियापालन और तपसंयम का आचरण करने वाले देवगति में जाकर मिथ्यात्व में गिर जाएंगे? अतः सर्व देवताओं को अधर्मी कहना भयंकर मूर्खता ही है।
सम्यग्दृष्टि देवों ने तो कई साधुओं और श्रावकों को उपदेश देकर जैनधर्म में स्थिर किया है और उन्हें दुर्गति में जाने से रोका है। इसके लिए निम्नांकित शास्त्रीय प्रमाण है .
श्री निरयावली सूत्र में कहा है कि 'महामिथ्यात्वी सोमिल तापस रात्रि में ध्यान लगा कर, नेतर जैसे कोमल काष्ठ की मुखमुद्रा बनाकर, मुख में डालकर और दोनों किनारों को कान में डालकर, उत्तर दिशा में मुख करके बैठा है।
वहाँ एक देव ने आकर कहा - 'हे सोमिल! यह तेरी प्रवज्या दुःप्रवज्या है। अतः जिनेश्वर कथित सुप्रवज्या को स्वीकार कर।'
___ परन्तु सोमिल ने उस ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार देव पाँच दिन तक कहता रहा कि "हे सोमिल! यह तेरी दीक्षा झूठी है यह तेरा कष्ट अज्ञान कष्ट है अतः बारबार विचार कर।" इस प्रकार बारबार इन हितवचनों को सुनकर सोमिल ने शुद्ध जैनधर्म को मान्य किया। मिथ्यात्व के दुष्कृत की आलोचना की और शुद्ध तप-जप व संयम का आराधन कर अन्त में महाशुक्र देवविमान में उत्पन्न हुआ। वह आगामी भव में मोक्ष में जाएगा। उसने श्री महावीर परमात्मा के सामने नाटक भी किया था।
श्री उपासकदशांग में लिखा है . 'गोशालक मत के उपासक सद्दालपुत्र को देवता ने महावीर स्वामी के पास जाने का उपदेश देकर धर्म में दृढ़ किया था।'
जरा सोचें, वह देव सम्यग्दृष्टि नहीं होता तो श्री महावीर प्रभु के पास क्यों भेजता?
श्री ज्ञातासूत्र में कहा है - 'महामोहान्य तेतलीपुत्र मंत्री को पोटिल नामक देव ने बहुत से उपाय करके धर्मबोध दिया। जिससे उसने जैन दीक्षा स्वीकार की और उसके बाद
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