Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 173
________________ - उत्तर - श्री रायपसेणी सूत्र में सूर्याभदेव ने जब पूछा कि 'मुझे आगे तथा पीछे हितकारी और करने योग्य क्या है ?' तब सामानिक देवों ने कहा- "तुम्हें आगे तथा पीछे श्री जिनेश्वरदेव की पूजा हितकारी और करने योग्य है" इससे सम्यग्दृष्टि सूर्याभदेव ने श्री जिनप्रतिमा की पूजा नित्य करणीय और हितकारी समझकर नित्य की है, ऐसा समझना चाहिए। किसी भी मिथ्यादृष्टि देव ने श्री जिनपूजा की हो, उसका उल्लेख किसी भी सूत्र में नहीं है। अत: वह आचरण समस्त देवों के लिए नहीं, किन्तु सम्यग्दृष्टि देवों के लिए ही है। श्री रायपसेणी सूत्र में भी लिखा है - 'अन्नेसिं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ । ' अर्थ- दूसरे भी बहुत से देव तथा देवियों के लिए पूजने योग्य हैं। इत्यादि पाठ से स्पष्ट है कि सिर्फ सम्यग्दृष्टि देव ही पूजते है। यदि समस्त देवों के लिए पूजा अनिवार्य होती तो 'सव्येसिं येमाणियाणं देवाणयं' ऐसा पाठ होना चाहिए था। इस प्रकार देवताओं की जिस भक्ति की स्वयं तीर्थंकर परमात्मा भी प्रशंसा करते हैं, जो निरन्तर शुभभाव में मग्न रहते हैं, गुरु के दर्शन करने के लिए तथा प्रश्न पूछने के लिए विनय सहित आते हैं, एकचित्त से परमात्मा व गुरु की देशना का श्रवण करते हैं, मिथ्यादृष्टि देवों के उपद्रव को दूर करते हैं, धर्मभ्रष्ट जीवों को उपदेश देकर स्थिर करते हैं और विविध प्रकार से शासन की उन्नति करते हैं, उन समस्त कार्यों को धर्म गिनेंगे और मात्र मूर्तिपूजा करने से उन्हें अधर्मी गिनने का प्रयत्न करोगे तो यह कार्य नीचतापूर्ण ही कहा जाएगा। यदि पूर्वोक्त कार्यों में देवता भगवान की स्तुति, भजन, स्मरण, वैयावच्च आदि कर धर्म की महिमा बढ़ाते हैं तो फिर क्या सिद्धायतन में जाकर जिनप्रतिमा के सामने इससे विपरीत करते होंगे ? अर्थात् भगवान की निन्दा या अधम कृत्य करते होंगे कि जिस कारण मूर्तिपूजा को निरर्थक और अशुभ माना जाय ? शास्त्रानुसार तो वे शुभभावयुक्त 'नमोत्थुणं' का पाठ कर स्तुति करते हैं और नाटक, गीत गान आदि कर परम उत्कृष्ट गति का बन्ध करते हैं। श्री आवश्यक सूत्र में 'देवाणं आसायणाए' पाठ कहकर देवताओं की आशातना का 'मिच्छामि दुक्कडं' देने में आया है। इस प्रकार 'मिच्छामि दुक्कडं' देकर फिर इस प्रकार अवर्णवाद बोलना क्या न्यायसंगत है ? श्री ठाणांग सूत्र के पाँचवें उद्देण में कहा है कि सम्यग्दृष्टि देवों की आशातना तथा निन्दा करने से जीव निकाचित कर्मों का बन्ध करता है और दुर्लभबोधि बनता है। "पंचर्हि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पकरेति तं जहा 166

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