Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 172
________________ करने के लिए अनुमति देते हैं, उसे निरर्थक या पापप्रवृत्ति कहने के लिए कौन समर्थ है ? भगवान के पाँचों कल्याणकों में देवता बड़ा महोत्सव करते हैं - यह बात 'श्री जंबुद्वीप पनत्ति' सूत्र में कही गई है। श्री जिनेश्वरदेव के अस्थि आदि को किस प्रकार असुरकुमार देव-देवी तथा चमरअसुरेन्द्र आदि शुभभाव से पूजते हैं, उसका वर्णन तथा फल, श्री गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान महावीर ने बतलाया है, जो निम्नांकित सूत्र से स्पष्ट है - " चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमारन्नो अन्नेसिं च बहूणं असुरकुमाराणां देवाणं देवीणं य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ ariafneencit, qufqeencit, aamefdesucit, समणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइथं पज्जुवासणिज्जाओ भवंति । ' 99 भावार्थ - वे दाढ़ाएँ (अस्थियाँ ) चमर असुरेन्द्र असुरकुमार देव तथा देवियों के लिए अर्चन योग्य, वन्दन योग्य, नमन योग्य, पूजन योग्य, सत्कार योग्य, सम्मान योग्य तथा कल्याणकारी मंगलकारी देव सम्बन्धी चैत्य (जिनप्रतिमा) के समान सेवा करने योग्य है। श्री जंबुद्वीपपन्नत्ति में भी दाढ़ाओं के अधिकार में कहा है कि 'केइ जिणभत्तीए अर्थात् कई देव जिनभक्ति मानकर तथा कई धर्म मानकर प्रभु की दाढ़ाओं को लेते हैं । इस प्रकार की भक्ति करने वाले देवों को अधर्मी कैसे कह सकते हैं ? श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भक्ति का फल यावत् मोक्ष और श्री रायपसेणी के आधार पर जिनपूजा का भी उतना ही फल सर्वज्ञ परमात्माओं ने बतलाया है। उसे निरर्थक कैसे गिन सकते हैं? इतना होने पर भी जीताचार से पुण्य व पाप दोनों के बन्ध का निषेध कहोगे तो फिर शास्त्र में 'जीव समय-समय में सात-आठ कर्म का बन्ध करता है' - यह बात कैसे संगत होगी ? यदि कह दो कि पापबन्ध होता है, तो वह बात बिल्कुल झूठ है, क्योंकि भगवान ने तो उस आचरण का फल मोक्ष बतलाया है। पूजा के समय तो देवता उत्कृष्ट शुभ भाव में रहते हैं तो उस शुभ भाव का फल अशुभ मिले, यह कैसे सम्भव है? भक्ति करने वाले मनुष्यों को तो पुण्यबन्ध और देवताओं को पापबन्ध हो - यह कैसा प्रलाप है ? प्रश्न 74 - देवता तो सम्पूर्ण जीवन में एक ही बार मूर्तिपूजा करते हैं, फिर नहीं। तथा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों वर्ग के देव वैसा करने के कारण उसे जीताचार कहते हैं, परन्तु शुभ आचरण नहीं? 165

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