Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 184
________________ मानव-मन पर नाम से भी अधिक असर स्थापना का होता है, इस नियमानुसार परमात्मा की प्रतिमा के आलम्बन से ज्यादा लाभ होता है। सर्वश्रेष्ठ द्रव्य जिनेश्वर की स्थापना है। शास्त्रों में स्थापना जिनेश्वर की भक्ति के अनेक प्रकार बतलाए हैं। प्रस्तुत विषय के संदर्भ में पूर्व पुरुषों के द्वारा विरचित 'चैत्थ-स्तव' सूत्र का विवेचन यहाँ अनुपयुक्त नहीं होगा । शब्द-शास्त्र विशारदों ने 'चैत्य' शब्द का अर्थ अरिहन्त की प्रतिमा और जिनमन्दिर किया है। (चैत्यं जिनौकस्तद्विम्बं वा) अनन्त उपकारी अरिहन्त परमात्मा की शाश्वत अशाश्वत प्रतिमाएँ तीनों लोकों में विद्यमान हैं। उन सब प्रतिमाओं की भक्ति की भावना भक्त के हृदय में अवश्य होती है। एक स्थल पर रहकर उन सबकी भक्ति सम्भव नहीं है। अतः उन सबकी भक्ति के फल को पाने के लिए (एक अरिहन्त परमात्मा के बिम्ब की विशिष्ट भक्ति करने के बाद) भक्तात्मा 'चैत्थ-स्तव' के द्वारा उन सबकी भक्ति की अनुमोदना करता है। 'चैत्य- स्तव' अरिहंत चेहयाणं करेमि काउसग्गं वंदण-वत्तियाए पूअण वत्तिथाए सक्कार - वत्तिए सम्माण-वत्तियाए बोहि-लाभ-वत्तियाए निरुवसग्ग-वत्तियाए सद्धाए-मेहाए धिइए - धारणाए अणुप्पेहाए - वकुमाणीए ठामि काउसग्गं । विवेचन अरिहंत चेइथाणं - चित्त अर्थात् अन्तःकरण, उसके भाव अथवा उसकी क्रिया को चैत्य कहते हैं। अरिहन्त की प्रतिमा प्रशस्त समाधि वाले चित्त को उत्पन्न करती है अथवा अरिहन्त की प्रतिमा से चित्त में प्रशस्त समाधि उत्पन्न होती है, अत: उन्हें चैत्य कहते हैं। चैत्य (प्रतिमा) के निवासस्थान को भी चैत्य कहते हैं, क्योंकि वह भी प्रशस्त समाधि वाले चित्त का जनक है। उन अरिहन्तों की प्रतिमाओं को वन्दनादि करने के लिए - । करेमि काउसग्गं - मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। उत्सर्ग अर्थात् त्याग। काया से एक स्थान पर स्थिरता, वाणी से मौन और मन से शुभ ध्यान करने की क्रिया को छोड़कर (श्वासोच्छवास आदि के आगारपूर्वक अन्य समस्त क्रियाओं का त्याग करता हूँ।) 177

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