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आवश्यकता होती ही है।
2. मुस्लिम ताबूत (ताजिया बनाते हैं, वह भी स्थापना ही है, उसे लोभान का धूप कर पुष्प-हार आदि चढ़ाकर अच्छे ढंग से उसका आदर करते हैं। शुक्रवार को शुभ दिन मानकर सामान्य मस्जिद में तथा ईद के दिन बड़ी मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ते हैं। ये मस्जिदें भी स्थापना ही हैं। कुरान शरीफ को खुदा का वचन मानकर सिर पर चढाते हैं, यह भी स्थापना ही है। औलिया, फकीर, मारां साहब, ख्याजा साहब आदि दरगाहों की यात्रा करते हैं तथा यहाँ स्थित मजारों पर पुष्पहार, मेवा, मिठाई आदि चढ़ाकर वन्दन-पूजन आदि करते हैं तो वह भी स्थापनातूल्य नहीं तो और क्या है? मस्जिदों, मक्कामदीना, फकीरों आदि की तस्वीर खिंचवाकर अपने पास रखते हैं, यह भी स्थापना ही है।
इस प्रकार कई प्रकार से मुसलमान भी अपनी मानी हुई पूज्य वस्तुओं की मूर्ति को एक समान मान देते हैं।
3. पारसी लोग अग्नि को मानते है और यह भी एक प्रकार की स्व- इष्ट देव की स्थापना
ही है।
4. नानकपंथी गुरु नानक के पश्चात् उनकी गद्दी पर बैठने वाले जितने भी गद्दीपति हुए उन सबकी लिखी पुस्तकों को परमेश्वर तुल्य मान कर भक्ति करते हैं। ग्रन्थ को विराजमान करते समय बड़े-बड़े जुलूस निकालते हैं, सुसज्जित भवनों में ऊँचे आसन पर रखकर उनके समक्ष नाट्य आदि करते हैं तथा उनका रात-दिन गुणगान करते हैं। पुस्तकें भी अक्षरों की स्थापना ही है।
5. कबीरपंथी कबीर की गद्दी को पूजते हैं। कोई उनकी पादुकाओं को पूजता है और सभी उनकी रचित पुस्तकों को सिर पर चढ़ाते हैं ।
6. दादूपंथी दादूजी की स्थापना तथा उनकी वाणी रूप ग्रन्थ को पूजते हैं। समाधि स्थल बनवाकर उसमें गुरु के चरणों को प्रतिष्ठित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
7. वेदों में भी मूर्तिपूजा के अनेक पाठ हैं। अतः आर्यसमाजियों का मूर्ति का खण्डन करना सर्वथा अनुचित है। उनके स्वामी दयानन्द शरीरधारी मूर्तिमय थे, वेद-शास्त्रों की अक्षर रूप में स्थापना को वे मानते थे तथा स्वरचित सत्यार्थप्रकाश आदि पुस्तकों में अपनी वाणी की आकृतियों द्वारा ही बोध करते तथा करवाते थे। इन आकृतियों का आश्रय यदि नहीं लिया होता तो किस तरह अपने मत की स्थापना कर सकते थे ?
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