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परन्तु 'मूर्ति-आयतन' अथवा 'प्रतिमा-आयतन' नहीं कहा है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि श्री सिद्ध की प्रतिमा सिद्ध के समान।
श्री रायपसेणी सूत्र तथा श्री जीवाभिगम सूत्र में श्री सूर्याभ देवता तथा श्री विजयपोलीआ की द्रव्यपूजा का अधिकार "धूवं दाऊणं जिणवराणं' अर्थात् 'श्री जिनेश्वरदेव को धूप करके' कहा है। इससे भी श्री जिनप्रतिमा जिनवर समान मानी गई है, यह सिद्ध होता है।
पुनः श्री रायपसेणी, श्री दशाश्रुतस्कन्ध और श्री उववाई आदि अनेक सूत्रों में तीर्थंकर को वन्दन के लिए जाते समय श्रावकों के अधिकार में कहा है कि - 'देवयं चेइयं पज्जयासामि' अर्थात् देवसम्बन्धी चैत्य अर्थात् श्री जिनप्रतिमा, उनके सामने मैं पर्युपासना करूंगा। ऐसे अनेक स्थलों पर भाव तीर्थंकर तथा स्थापना तीर्थंकर की एक समान पर्युपासना करने का पाठ है; जिससे दोनों में कोई अन्तर नहीं है।
भाव या स्थापना दोनों में से किसी की भी भक्ति और पूजा जिस भाव से की जाती है, तदनुसार फल की प्राप्ति होती है।
श्री ज्ञातासूत्र में द्रौपदी के पूजन के अधिकार में श्री 'जिनमन्दिर' को श्री 'जिनगृह' कहा है पर 'मूर्ति-गृह' नहीं कहा। इस पर से भी श्री जिनमूर्ति को ही जिन की उपमा घटती है न कि साधु की। माधु वस्त्र, पात्र, रजोहरण और मुहपत्ति आदि उपकरण सहित है जबकि भगवान के पास इनमें से कुछ भी नहीं होता। भगवान रत्नजडित सिंहासन पर बैठते हैं, उनके दोनों ओर चँवर ढाले जाते हैं, पीछे भामण्डल रहता है, आगे देवदुन्दुभि बजती है, देवता पुष्पवृष्टि करते हैं इत्यादि अतिशयों से युक्त भगवान होते हैं। साधु के पास इनमें से कुछ भी नहीं होता है। तब फिर साधु की श्री वीतराग से तुलना कैसे कर सकते हैं?
पर्यंकासन पर विराजमान सौम्य दृष्टि वाली वीतराग अवस्था की प्रतिमा तो श्री अरिहन्त भगवान के तुल्य है। वीतराग की मूर्ति को वीतराग का नमूना कहा जाता है, साधु का नहीं। साधु के नमूने को ही साधु कहा जाता है। श्री अंतगडदशा सूत्र में कहा है कि 'हरिणगमेषी की प्रतिमा की आराधना करने से वह देव आराध्य बन गया' इसी प्रकार श्री वीतराग की मूर्ति की आराधना करने से श्री वीतरागदेव आराध्य बन जाते हैं।
प्रश्न 7 - श्री जिनप्रतिमा को जिनराज समझकर नमस्कार करो तो यह नमस्कार मूर्ति को हुआ, भगवान को नहीं, क्योंकि भगवान तो मूर्ति से भिन्न हैं। मूर्ति को नमस्कार करने से भगवान को नमस्कार नहीं होता और भगवान को नमस्कार करने से मूर्ति को नमस्कार नहीं होता। इसका क्या समाधान है?
उत्तर - मूर्ति और भगवान सर्वथा भिन्न नहीं है। इन दोनों में कुछ समानता है। श्री .