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आत्मा अनादि काल से पुद्गल के विषय में आसक्त रही हुई है। उसे पुद्गल के संसर्ग की आसक्ति से मुक्त करने वाला शुभालम्बन प्रतिमा के बिना दूसरा कोई नहीं है। उच्च कोटि के शुभालम्बन तथा ज्ञान-ध्यान आदि द्वारा पुद्गल का राग छूट जाने पर, भूख की तृप्ति होते ही जैसे अनाज की तथा रोग की शांति होते ही जैसे दवा की इच्छा समाप्त हो जाती है, वैसे ही सभी प्रकार के आलम्बन स्वतः ही छूट जाते हैं। पर उसके पहले संसार में लिप्त प्राणियों को शुभ आलम्बन छोड़ देना हितकर नहीं है। जिस प्रकार साँप अपने आवरण का त्याग करता है वैसे ही उच्च भूमिका प्राप्त होते ही आलम्बन स्वतः ही छूट जाते
प्रश्न 19 - जड़ प्रतिमा मोक्षदायक कैसे हो सकती है?
उत्तर - शास्त्र, जो स्याही और कागज रूप होने के कारण जड़ होते हुए भी 'मोक्ष दिलाने वाले है', एसा सभी स्वीकार करते हैं, तो परमेश्वर की मूर्ति भी उसके आराधक को मोक्ष का सुख प्रदान क्यों न करे? शास्त्र ईश्वरीय वचनों की प्रतिमा है; एवं मूर्ति भगवान के आकार की प्रतिमा है। शब्दों की प्रतिमा से जिस प्रकार ज्ञान होता है, उसी प्रकार आकार की प्रतिमा से भव्य आत्माओं को ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता ही है।
प्रश्न 20 - अक्षरों के आकार को देखने मात्र से ज्ञान होता है परन्तु मूर्ति को देखने मात्र से ज्ञान कहाँ होता है?
उत्तर - अक्षराकार को देखने मात्र से ज्ञान होने की बात कहना गलत है। इस ज्ञान के पूर्व शिक्षक द्वारा उन अक्षरों को पहिचानना पड़ता है।
अक्षरों को पहिचानने के बाद ही पढ़ना या लिखना सीखा जा सकता है। इस प्रकार गुर्वादिक द्वारा - "यह देवाधिदेव श्री वीतराग की मूर्ति है, इनके अज्ञानादि दोषों का नाश हो चूका है। ये अनन्त गुण वाले हैं। ये देवेन्द्रों से भी पूजित हैं, तत्त्वों का उपदेश देने वाले हैं, मोक्ष की प्राप्ति उन्हें हो चुकी है, ये संसार सागर से तिर चुके हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी है, दया के सागर हैं, परीषह तथा उपसर्गों की सेना को भगाने वाले हैं तथा रागादि से रहित हैं।'' ऐसा ज्ञान जैसे-तैसे होता जाता है, वैसे-वैसे मूर्ति के दर्शनादि करते समय उन गुणों का ज्ञान तथा स्मरण दृढ़तर बनता जाता है।
प्रश्न 21 - मूर्ति के दर्शन से देव का स्मरण होता है, यह यात बराबर है, पर उसकी भक्ति से क्या लाभ?
उत्तर - शास्त्र के सुनने अथवा पढ़ने से परमेश्वर के वचनों का बोध होता है, तो भी शास्त्र का उपकार मानने वाले भक्त लोग उसे ऊँचे स्थान पर रखते हैं, पैर नहीं लगने देते, मल-मूत्र वाली अपवित्र जगह से दूर रखते हैं तथा उसको वन्दन-नमस्कार करते हैं। इस प्रकार शास्त्र की भक्ति करने से शास्त्र के वचनों पर प्रेम बढ़ता है, श्रद्धा सुदृढ
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