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कार्यों में हिंसा ही होती तो भगवान कभी भी ऐसी आज्ञा नहीं देते। परन्तु नदी पार करना आदि कार्य संयमरक्षा के लिए हैं, न कि भौतिक सुख पाने के लिए, इसलिए उन प्रवृत्तियों को हिंसक नहीं पर अहिंसक माना गया है।
यहाँ ऐसा तर्क,होना भी स्वाभाविक है - "श्री जिनपूजा भक्तिस्वरूप होने से उसमें होने वाली विराधना यदि हिंसा नहीं है तो पंच महाव्रतधारी साधु द्रव्यपूजा क्यों नहीं करते?"
इसका उत्तर यह है कि साधुओं के द्रव्यपूजा नहीं करने का कारण यह नहीं है कि यह हिंसा-कार्य है परन्तु यह है कि वे द्रव्य के त्यागी होते हैं। अधिकार-विशेष से क्रिया-भेद होता है। द्रव्यपूजा के अधिकारी द्रव्य को धारण करने वाले होते हैं। साधुओं को स्नान नहीं करने की प्रतिज्ञा होती है, स्नान द्रव्यपूजा के लिए आवश्यक है, इसलिए साधुओं के लिए यह कार्य उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध है।
गृहस्थ स्नान करने वाले होते हैं तथा द्रव्य के संगी भी। इसलिए भक्ति के निमित्त द्रव्यपूजा उनके लिए आवश्यक है और उसमें प्रमत्तयोग नहीं होने से अनिवार्य रूप से होने वाला प्राणनाश, हिंसा रूप नहीं है। औषधि रोगी के लिए लाभदायक है अतः स्वस्थ वैद्य को भी इसका सेवन करना चाहिये, ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता। द्रव्यपूजन आरम्भ एवं परिग्रह के रोग से पीड़ित आत्माओं को उस रोग से छुटकारा दिलाने के लिए अर्थात् आरम्भ और परिग्रह के विचार एवं आचरण से दूर रखने के लिए विहित किया हुआ है।
साधु आरम्भ और परिग्रह के रोग से मुक्त हैं अतः उनको द्रव्यपूजन रूपी औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है।
यहाँ एक दूसरा ऐसा तर्क भी उठने की सम्भावना है कि - "पृथ्वीकायादि के आरम्भमय द्रव्यपूजन से निरारम्भमय सर्वविरति के ध्येय की सिद्धि किस प्रकार होती है?"
इसका सीधा और सरल उत्तर है कि जिन गुणों के प्रति जिस मनुष्य की अत्यन्त श्रद्धा होती है, वह उन गुणों को प्राप्त करने के अध्यवसाय वाला होता ही है और उसे वह शुभ अध्यवसाय ही अनन्त निर्जरा करवाने वाला बनता है। ऐसी निर्जरा से आत्मा निर्मल बनकर स्वयं के क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक गुणों को प्राप्त करती है।
_गुणप्राप्ति होने से गुणवान् के वचनों के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। इस श्रद्धा की तीव्रता में ज्यों-ज्यों वृद्धि होती है, त्यों-त्यों आत्मा में गुणवान् के वचनानुसार आचरण करने की तत्परता जगती है। आचरण की इस तत्परता में से बाहरी व भीतरी सभी संयोगों का भोग देने की तैयारी उत्पन्न होती है। इसी का नाम सर्वविरति है। इस प्रकार परम्परा से प्रभुमूर्ति का पूजन सर्रविरति के ध्येय को पाने का साधन बन सकता है। इतना अवश्य है कि श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा को पूजने वाले सभी लोग सभी भव में सर्वविरति के ध्येय को
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