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अर्थात् - परिणाम की दृष्टि से जो आस्रव के कारण होते हैं; वे संवर के कारण बनते हैं तथा जो संवर के कारण होते हैं; वे आस्रव के कारण बनते हैं।
इलाचिपुत्र पाप के इरादे से घर से निकले थे तथापि उन्होंने परिणाम की विशुद्धता मे वाम की डोरी पर नाच करते समय केवलज्ञान प्राप्त किया था।
भरत चक्रवर्ती का काच के भुवन में रूप देखने जाना आस्रव का कारण था; पर मुद्रिका के गिरने से शुभ भावनाओं में आरूढ़ होते ही उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
इसी प्रकार माधु मुनिगज संवर एवं निर्जरा के कारण हैं, फिर भी उनको दुःख देने, उनका वग विचारने तथा उनकी निन्दा आदि करने से जीव अशुभ कर्म का आस्रव करता है, परन्तु इससे साधु मुनिराज की पूज्यता नष्ट नहीं हो जाती। साक्षात् भगवान श्री महावीरदेव को देखकर भी संगमदेव तथा ग्वाले आदि के अशुभ परिणाम हुए, इसमें कारण उनका अशुभ भाव ही है। एक कवि ने कहा है कि
पत्रं नैव यदा करीरविटपे, दोषो वसन्तस्य किं, उल्लूको न विलोकते यदि दिया, सूर्यस्य किं दूषणम् । वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे, मेघस्य किं दूषणं, यद्भाग्यं विधिना ललाटलिखितं, दैयस्य किं दूषणम् ।।
करीर के वृक्ष पर पत्ते नहीं आते, उसमें वसन्त ऋतु का क्या दोष? उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता तो इसमें सूर्य का क्या दोष? वर्षा की बूँदे चातक के मुख में नहीं गिरती तो इसमें मेघ का क्या दोष? तथा इसी प्रकार ललाट पर लिखे भाग्यानुसार फल भोगना पड़े तो इसमें दैव का भी क्या दोष माना जाय?
इसी प्रकार श्री देवाधिदेव की मूर्ति तो शुभ भाव का ही कारण है तथापि उनके द्वेषी, दृष्ट परिणामी तथा हीनभागी जीवों को भाव उत्पन्न न हो तो वास्तव में उन्हींकी कम-नसीबी है। सूर्य के सामने कोई धूल डाले अथवा सुगन्धित पुष्प फेंके, दोनों फेंकने वाले की ओर ही लौटते हैं। अथवा कठोर दिवार पर कोई मणि या पत्थर फेंके तो वे वस्तुएँ फेंकने वाले की
ओर ही वापिस आती हैं, अथवा चक्रवर्ती राजा की कोई निन्दा या स्तुति करें तो उससे उसका कुछ बिगड़ता-बनता महीं; पर निन्दक स्वयं दुःख का भागी बनता है एवं प्रशंसक स्वयं उत्तम फल प्राप्त करता हैं।
दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो जिस प्रकार पथ्य-आहार लेने से खाने वाले को सख मिलता है और अपथ्य भोजन करने से भोजन करने वाले को दुःख मिलता हैं, पर आहार में काम में ली हुई वस्तु को कुछ नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार परमात्ममूर्ति की स्तुति, भक्ति अथवा निन्दा करने से अलिप्त ऐसे परमात्मा पर कुछ भी असर नहीं होता है परन्तु निन्दक स्वयं दुर्गतियोग्य कर्म उपार्जित करता है व पूजक शुभ कर्म का उपार्जन कर स्वयं
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