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में होने वाली जीव - विराधना के पाप का भागी वह उपदेशक बनता है।
उपदेशक का इरादा तो श्रोता के आत्मकल्याण का है न कि जीवविनाश का । श्री जिनेश्वर देव तो क्षीणमोही एवं वीतराग हैं। उन पर स्वयं की पूजा की अभिलाषा का आरोप लगाना पूर्णतया अज्ञानता ही है ।
सर्वविरति द्वारा चौदह राजलोक के सर्व जीवों को अभयदान दिया जाता है। इसकी प्राप्ति हेतु एकेन्द्रिय जीवों की स्वरूपहिंसा वाली पूजा न्याययुक्त तथा अधिक लाभदायी है। इस पूजन द्वारा एकेन्द्रिय से बढ़कर द्विन्द्रिय आदि का वर्ग रक्षणीय है और परम्परा से एकेन्द्रिय वर्ग भी भक्ष्य है। पशुवध की पूजा में ऐसा नहीं है, क्योंकि पंचेन्द्रिय से बढ़कर किसी जीव का वर्ग है ही नहीं और अपने भले के नाम पर होने वाला पंचेन्द्रिय के वध वाला कार्य धर्मकार्य माना भी नहीं जा सकता, क्योंकि यह मानवता के भी विरुद्ध है।
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अहिंसा से चारित्रावरणीय कर्म नष्ट होता है वैसे ही सर्वविरति के ध्येय से होने वाली पूजा भी चारित्रमोहनीयादि दुष्ट कर्म की प्रकृतियों का नाश करती है। दोनों से एक ही कार्य की सिद्धि होने से अहिंसा तथा श्री जिनपूजा उत्सर्ग- अपवाद रूप बन सकते हैं परन्तु स्वर्गादि समृद्धि के लिए पंचेन्द्रिय जीव का वध करके पूजन करने में हिंसा और परिग्रह दोनों पापों का पोषण होता है और इससे उत्सर्ग अपवादरूप नहीं बन सकता । प्राप्त किये हुए संयम के पालन के लिये नदी उतरने में लाभ होता हो तो अप्राप्त संयम की प्राप्ति के लिए देवपूजादि में प्रवृत्त होने वाले को लाभ क्यों नहीं होगा? अर्थात् अवश्य होगा ही ।
श्री जिनेश्वरदेव की पूजा के पीछे गुणप्राप्ति, वैराग्य, मार्गानुसारिता, दुःखक्षय और कर्मक्षय आदि आत्मकल्याणकर वस्तुओं का ही ध्येय है। ऐसे उत्तम ध्येय से पूजन करने वाला यदि हिंसा के फल को प्राप्त होता है तो फिर अहिंसा के फल को कौन प्राप्त कर सकता है? इसकी खोज करना असम्भव है। श्रावक यदि द्रव्यपूजन करता है तो अपने व्रतनियमों का भंग करके तो नहीं करता।
श्री जिनेश्वर देव की पूजा में पशु आदि का अथवा अभक्ष्य पदार्थों का नैवेद्य नहीं रखा जाता और न अपेय वस्तुओं से प्रक्षालन करना होता है । बड़ा झूठ अथवा बडी चोरियाँ करके भी पूजा करने की नहीं होती । कम से कम देशविरति धर्म की भूमिका से नीचे गिराने वाला एक भी कार्य श्री जिनपूजा में करने का नहीं होता है ।
सचित्त पानी, वायुवींझन, अग्निसमारम्भ, वनस्पतिभक्षण, कच्ची मिट्टी और कच्चा नमक जिसने छोड़ दिया हो उसको पूजा की आवश्यकता नहीं है। परन्तु जो धन कमाने अथवा शरीर शुश्रूषादि के लिए दया के विचार से भी रहित है, अभक्ष्य एवं अनन्तकाय तक के पदार्थों का सेवन
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