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सांसारिक कार्यों की सिद्धि के लिए होने वाली हिंसा हेतु - हिंसा है। धर्मकार्यों के लिए होने वाली अनिवार्य हिंसा स्वरूप-हिंसा है तथा मिथ्यादृष्टि आत्मा से होने वाली हिंसा अनुबन्ध हिंसा है। इनमें स्वरूपहिंसा कर्मबन्ध का कारण नहीं है ।
धर्मकार्य के समय प्राणी की हत्या का नहीं परन्तु उसकी रक्षा करने का उद्देश्य होता है पर फिर भी अनिवार्य रूप से यदि हिंसा हो जाती है तो वह स्वरूप - हिंसा है। स्वरूपहिंसा तेरहवें गुणस्थानक तक नहीं टल सकती परन्तु इसे केवलज्ञानादि गुणों की प्राप्ति में प्रतिबन्धक नहीं माना गया है।
हेतु - हिंसा और अनुबन्ध - हिंसा त्याज्य है क्योंकि वे संसार के हेतुभूत क्लिष्ट कर्मों के उपार्जन में हेतुभूत हैं। श्री आचारांगादि सिद्धान्तों में अपवाद रूप से हिंसा आदि का प्रयोग करने वाले मुनिवरों को तथा समुद्र के जल में अप्कायादि की विराधना होते हुए भी शुभध्यानारूढ़ मुनिवरों को केवलज्ञान तथा मुक्ति प्राप्त होने के उदाहरण है। संयमशुद्धि के लिए आवश्यक साधु-विहारादि की भाँति श्री जिनभक्ति आदि में होने वाली हिंसा को श्री जिन आगमों ने कर्मबन्ध करने वाली नहीं माना है। केवल दया की निरपेक्ष प्रधानता, लौकिक मार्ग है। लोकोत्तर मार्ग श्री जिनाज्ञा की प्रधानता में बसा हुआ है।
श्री जिनशासन स्याद्वादगर्भित है । सुविवेक पूर्वक के आशयभेद से हिंसा भी अहिंसा बन जाती है तथा विवेकहीन की अहिंसा भी हिंसा बन जाती है। आत्मभाव का जिसमें हनन - होता है वह हिंसा है पर जिससे आत्मभाव का हनन नहीं होता, वह हिंसा नहीं है । दान, देवपूजा, प्रतिक्रमण, पौषध, साधुविहार तथा साधर्मिक वात्सल्य आदि आत्मा का हनन करने वाली क्रियाएँ नहीं है और इसीलिए वे परम्परा से पूर्ण अहिंसामय हैं और वे मुक्ति दिलाती है । 'मुक्ति के साधनों का सेवन करते समय होने वाली अनिवार्य हिंसा आत्मभाव का हनन `करने वाली नहीं होती' यह बोध जिन्हें नहीं मिला वे धर्मबुद्धि से ही अधर्म का सेवन करने वाले बन जाते हैं अथवा अधर्म के सेवन को ही धर्म का कारण मानने लगें तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
दानादि शुभ कार्यों की भाँति श्री जिनपूजा आत्मभाव को विकसित करने वाली हैं; अत: हिंसा के नाम पर इससे दूर रहना या दूसरों को दूर भगाना घोर अज्ञानतापूर्ण आत्मघाती कदम है।
मूर्ति को नहीं मानने से होने वाले मूर्ति को नहीं मानने से निम्नलिखित नुकसान स्पष्ट हैं :
1. मूर्ति को नहीं मानने के कारण 32 उपरान्त के आगमों से, पूर्वधरों द्वारा बनाये गये निर्युक्तिआदि ज्ञान के समुद्र समान महाशास्त्रों से तथा उनके उत्तमोत्तम सद्बोधों से
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नुकसान