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थोड़ी बहुत अन्तःकरण की शुद्धि होती है।
3. सदा पूजा करने वाले का थोड़ा बहुत द्रव्य भी प्रतिदिन शुभ क्षेत्र में खर्च होता है, जिससे पुण्यबंध होता है। ___4. अनीति, अन्याय और आरम्भ से उपार्जित द्रव्य भी यदि अनीति के त्याग की भावना से तथा पश्चातापपूर्वक मन्दिर बनवाने के काम में लगाया जाय तो इससे दुर्गति रुकती है। मन्दिर आदि बँधवाने से लाखों लोग इसका लाभ लेते है। धन का लाभ तथा व्यय - दोनों ही कर्मबंध का कारण होते हुए भी मन्दिर आदि बनवाने में इसका उपयोग होने से वह कर्म निर्जरा का कारण बन जाता है।
5. सदा प्रतिमा की पूजा करने से तीर्थयात्रा करने की शुभ भवाना रहती है। तीर्थयात्रा करने से चित्त की निर्मलता, शरीर का स्वास्थ्य और दान, शील तथा तप की वृद्धि आदि पदान् लाभ प्राप्त होते हैं।
___6. बीमारी वगैरह में सेवा-पूजा नहीं भी हो सके तो भी भावना सेवा-पूजा की ही रहती है और ऐसी दशा में कभी मृत्यु भी हो जाय तो भी जीव की शुभ गति होती है।
7. गृहस्थों के आत्मकल्याण के लिए मन्दिर और मूर्ति मुख्य साधन हैं। सुविहित शिरोमणि आचार्य भगवान श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज फरमाते हैं "आरम्भ में आसक्त बने हुए, छह काय जीव के वध से नहीं बचे हुए एवं भवसागर में भटकते गृहस्थों के लिए निश्चित रूप से द्रव्यस्तव ही आलम्बनभूत है। इन सब लाभों का विचार करके और कुछ नहीं भी बन सके तो भी श्री जिनेश्वरदेव की प्रतिमा के पूजन के लिए तो प्रत्येक कल्याण चाहने वाले व्यक्तिको तत्पर रहना ही चाहिए। इस मानव-जन्म में श्री जिनपूजा की पवित्र एवं कल्याणकारी प्रवृत्ति के आचरण में थोड़ा भी प्रमाद करना विवेकी लोगों के लिये उचित
नहीं है।
भक्ति तो मुक्ति की दूती है। जहाँ परमात्म-भक्ति होगी वहाँ मुक्ति आए बिना नहीं रहेगी।
जो जहाज में बैठा है, वह भयंकर सागर के बीच भी सुरक्षित है, जिसने प्रभु की शरणागति स्वीकार कर ली, वह विकट परिस्थितियोंप्रसंगों में भी पूर्णतया सुरक्षित है।
मछली की सुरक्षा जल में रही हुई है, उसी प्रकार आत्मा की सुरक्षा प्रभु की शरणागति में रही हुई है।
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