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चार निक्षेपों का शास्त्रीय स्वरूप
श्री अनुयोगद्वार सूत्र में शास्त्रकार महर्षि फरमाते हैं - जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेयं निक्खिये निरयसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिये तत्य ||1||
जहाँ जिम वस्तु में जितने निक्षेप ज्ञात हों वहाँ उस वस्तु में उतने निक्षेप करना और जहाँ जिस वस्त में अधिक निक्षेप मालम नहीं हो सके वहाँ उस वस्तु में कम से कम चार निक्षेप तो अवश्य करने चाहिए। तात्पर्य यह है कि जगत् के सभी छह द्रव्यों, नौ तत्त्वों, पाँच परमेष्ठियों तथा नौ पदों, इन सभी में कम से कम चार निक्षेप तो अवश्य किये जा सकते हैं।
किसी भी वस्तु का स्वरूप जानने के लिए सामान्य रूप से कम से कम चार निक्षेप तो अवश्य किये जाते है, वे इस प्रकार हैं -
१. नाम निक्षेप - वस्तु के आकार एवं गुण से रहित नाम को नाम निक्षेप कहते हैं।
2. स्थापना निक्षेप- वस्तु के नाम तथा आकार सहित परन्तु गुणरहित, उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं। ____ 3. द्रव्य निक्षेप - वस्तु के नाम और आकार तथा अतीत और अनागत गुण सहित परन्तु वर्तमान गुण रहित को द्रव्य निक्षेप कहते हैं।
4.भावनिक्षेप-वस्तु के नाम, आकार और वर्तमान गुण सहित को भाव निक्षेप कहते हैं।
उदाहरण स्वरूप - श्री जिनेश्वर देवों के 'महावीर' आदि नाम, वे नाम जिन; उन तारकों की प्रतिमा, वे स्थापनाजिन, जिन-नाम-कर्म बाँधा हो ऐसे श्री जिनेश्वरदेव के जीव, वे द्रव्यजिन और समवसरण में धर्मोपदेश देने के लिए विराजमान साक्षात् श्री जिनेश्वरदेव, वे भावजिन कहलाते हैं। इस प्रकार श्री जिनेश्वरदेव के चार निक्षेप समझने चाहिए। इन चार निक्षेपों के अभाव में कोई भी वस्तु वस्तु रुप में सिद्ध नहीं हो सकता। जगत् .
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