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तीर्थंकरों का परोपकारमय जीवन
नामकृतिदव्यभावैः, पुनतलिजगज्जनम् ।
क्षेत्रेकाले चसर्वस्मि-हत: समुपास्महे ।।१।। इस सुन्दर पद्य में परम उपकारी, कलिकालसर्वज्ञ, आचार्य भगवान् श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा फरमाते हैं कि -
"सभी कालों में तथा सभी क्षेत्रों में नाम, आकृति, द्रव्य और भाव - इन चारों स्वरूपों द्वारा तीनों जगत् के लोगों को पवित्र करने वाले श्री अरिहन्तों की हम उपासना करते हैं।"
उपर्युक्त पद्य से यह भाव निकलता है कि अरिहन्त परमात्मा की मूर्तियाँ और उनकी पूजा आजकल ही नहीं परन्तु सदा की हैं। श्री अरिहन्तों के चार निक्षेप उपास्य हैं। इन चार में से एक भी निक्षेप की उपेक्षा सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधक तथा प्राप्त सम्यक्त्व का नाश करने वाली है।
कोई भी काल ऐसा नहीं कि जिसमें मूर्तिपूजा का अस्तित्व न हो तथा कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं कि जिसमें श्री अरिहन्त देवों की मूर्तियाँ उनके उपासकों को पवित्र न करती हों। मूर्तिपूजा आत्मकल्याण का प्रारम्भिक अंग है। अधिकार एवं योग्यता के अनुसार साधुओं की भाँति श्रावकों के लिए भी श्री अरिहन्त परमात्माओं की भावपूजा तथा द्रव्यपूजा निरन्तर आवश्यक है। इसका पालन नहीं करने वाले साधु तथा श्रावक को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त का भागीदार बताया है।
जहाँ तीर्थ है वहाँ पूजा होती है। भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में एक-एक चौबीसी होती है। हर चौबीसी में चौवीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं। ऐसी अनन्त चौबीसी अतीत में हो गई और भविष्य में होगी। महाविदेह क्षेत्र में तो श्री तीर्थंकरों का विरह ही नहीं है। अतः जब-जब और जहाँ-जहाँ उन परमोपकारी तीर्थपतियों का तारक तीर्थ प्रवर्तमान होता
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